कहानीलघुकथा
*झरोखों की चाह*
पिता के गुजरने के साल भर बाद ही बेटा वंदन माँ निर्मला को शहर ले आया।
बहू नित्या ने उनका कमरा तैयार कर रखा था। पलंग के पास दवाई आदि के लिए रेक, छोटा टी वी व पूजाघर।
वंदन व नित्या सवेरे नौ बजे नौकरी पर निकल जाते। घर पहुँचते अँधेरा हो जाता।
एक मराठी ताई आकर सब काम निपटा जाती। कशा काय अम्मा जी कहते हुए ताई, निर्मला की पसन्द का खाना बड़े ही प्यार बना देती। पर निर्मला जी व ताई की बातचीत इशारों में ही हो पाती।
कहने को सारे ऐशो आराम लेकिन निर्मला का मानो मुँह ही किसी ने सिल दिया है। अपने घर में थी तो दिन भर चहल पहल, आगे खुला आँगन व पीछे बाड़ा। किधर भी चले जाओ।और क्या काकी, खाना हो गया, अरे आज तो दिखी नहीं सुनते सुनाते दिन
निकल जाता ।
ठंड में दुपहरी आँगन में तो गर्मी की रातें छतों पर बीत जाती। पापड़ बड़ी अचार बनाने में पड़ोसिनों का साथ और गपशप चलती रहती।
शहर आकर तो बीमार सी हो गई। बहू अभी दो साल और बच्चा नहीं चाहती। त्योहारों पर सब कुछ बाजार से आता। न काम न धाम। बस पड़े पड़े बिना रोशनदान खिड़की वाली सूनी दीवारों को ताकते रहो।
वहाँ गाँव में तो पंछियों के लिए भी झरोखें रहते हैं। और यहाँ खामोश दीवारें।
नित्या, माँ की उदासी समझ उनकी व्यवस्था खुली बालकनी में कर देती है। झीने पर्दे लगा पंछियों के लिए सकोरों में दाना पानी रख देती है। और बड़ी दीदी को बुला लेती है। वह ख़ुद भी रोज़ मोबाइल के बजाय सासु माँ के साथ समय गुजारती है।अब निर्मला जी की झरौखों की चाह बाहर की चहल पहल देख पूरी हो जाती है।
सरला मेहता
इंदौर