कवितालयबद्ध कविता
हे सहचरी! मुझे क्षमा करना।
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
हे प्रिय! तुझे ना कह पाया !
गृहस्थ धर्म ना निभा पाया!!
माना हृदय विचलित होगा!
मन भाव से कुंठित होगा !!
करुण विनय ना सुन पाता!
सिद्धि मार्ग से ना हट पाता!!
मैं बचपन से सन्मार्गी था !
मैं हृदय से बड़ा वैरागी था!!
अंतर्मन से मैं विचलित था!
सत्य खोज में निकला था!!
तेरी पतिवर्ता को जाना था !
मुझे ज्ञान केवल्य पाना था!!
हे प्रिय! तुझे ना कह पाया !
गृहस्थ धर्म ना निभा पाया!!
मैं अपना निशानी छोड़ गया!
दिल के टुकड़ों को शोप गया!!
तु अपनी ममतत्व भी करना!
पर पिता का भी छाया रहना!!
तुम गृहस्थ सद् धर्म में रहना!
हे सहचरी! मुझे क्षमा करना!!
_________________________
@©✍️ राजेश कु० वर्मा 'मृदुल'
शहरपुरा, गिरिडीह (झारखण्ड)
आप सभी के समक्ष मेरी रचना अवलोकनार्थ हेतु सादर प्रस्तुत कर रहा हूं।🙏🙏