लेखआलेख
आत्म अवलोकन
मन से संवाद
बारिश की बूंद बन मैं अभी अभी टप टप तन पे तेरे पड़ी .
घर से निकली जो घनश्याम, घन घोर घटा बन बरस रही अब जो निकली हूँ घर से लौट के फिर ना जाऊँगी बस बहती और तेज बहती चली जाऊंगी...
तू बस विदाई को मेरी थोड़ा सा वेग देना | मेरी धारा को सूरज सा तेज देना | अनवरत बहने को झरने सी बहती चली जाऊगी | ना कोई अवरोध होगा ना कोई बांध होगा | सागर में समा के ही अब सब बोध होगा l
तेरे आगोश से मुझमे जन्मी जो एक गति, बूंद बूंद नई सोच अब लहरेगी ना कोई तूफ़ान होगा l अब रुकू तभी जब सागर मैं खुद को पाऊ l बस सागर की हो जाऊ l बहना अब मेरा अविराम होगा l
अब मन की नदिया नही थकेगी l क्यूकी इसे स्मरण है अपनी उत्पत्ति का कारण और अंत को बुलाता हैँ पास.. सागर का अंनत नाद l नाद बादल का जो घनघोर बरसता है, गरजता है .. नाद सागर का जो मिलन को उन्माद में रोज उमड़ता है, उफनता हैँ l तो अब से इस नाद से रोज मेरा संवाद होगा हर काम अब इसके बाद होगा l अब मेरी मनलहरी भी एक नाद करेगी... ये स्वरलहरी तुझ से मिलने को नित उन्माद करेगी l