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मेरा अपना आप - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मेरा अपना आप

  • 158
  • 11 Min Read

आज मैं एक बार फिर
भरमाते और उलझाते से
ख्यालों और सवालों से घिर
अनायास यूँ असमय
और बनकर एक विस्मय,
अपनी ही मदहोशी में
बोलती सी खामोशी में
गया नींद से जाग

मेरा अपना आप उठ के
चोरी-चोरी चुपके-चुपके
दबे पाँव आ, दस्तक देकर
अहसासों की नर्म,
गर्म उँगलियों की
गुद्गुदी सौगात देकर
हाथों में फिर हाथ लेकर
बैठ गया यूँ मेरे पास

पास आकर,
मुस्कुराकर
साया सा बन,
मन पर छाकर
लगा पूछने,
" पहचाना ?
देख रहे हो ऐसे, जैसे
हूँ मैं कोई अनजाना "

लगा मुझे ऐसे,
मैं जैसे
देख रहा हूँ आईना
यह मेरा वजू़द था, मुझसे
पूछ रहा होने का, खुद के,
भूला-बिसरा सा
एक मायना

हाँ, इसको ही तो
ना जाने मैं
कब से ढूँढ रहा था
साथ मेरे था साये सा
जीवन के सरमाये सा
पर जाने क्यूँ
मैं ही आँखें मूँद रहा था

इसे छोड़कर मैं तो बाकी
सब कुछ देख रहा था

खुद में बसते खुदा से,
खुद का नाता तोड़कर
भूलभुलैया सी भरमाती,
भटकाती और अटकाती
दुनियादारी की बिसात पर
पासे फेंक रहा था

कस्तूरी मुझमें बसी थी,
ना जाने कब से छुपी थी
इसकी खुशबू से बौराया,
खुद को जाने क्यूँ बिसराया
कभी उधर और कभी इधर
ना जाने कब, क्यूँ, किधर
खुद से खुद ही बेखुद, बेसुध
खुद से खुद ही बेखबर

कुछ ज्यादा,
फिर उससे ज्यादा
पाने को होकर आमादा
अंधाधुंध, लोभ की धुंध
गिरगिट जैसे रंग बदलते
हालातों का
एक घना कोहरा

ताबड़तोड़, अंधी दौड़
जोड़तो़ड़, बस जोड़तोड़
मेरी मृगतृष्णा बनाकर
मुझको अपना मोहरा

मुझको छल-छल,
मुझसे पल-पल
खेल रही थी

ना जाने कैसी मजबूरी
खुद से ही खुद की दूरी
कब से यह सब झेल रही थी
जिंदगी यूँ लुका-छिपी का
मुझसे खेल खेल रही थी

तभी अचानक
देखा मैंने,
देता दस्तक
मन की इस दहलीज पे
बीते कल से
मुझको बाहर खींच के,
मुझको मुझसे ही मिला के
काल की जड़ हिमशिला से
एक नया दिन बूँद-बूँद कर
अपना रस्ता ढूँढ-ढूँढकर
पल-पल पिघल रहा था

प्राची से नवजात रवि
फिर हौले-हौले
निकल रहा था

फिर अनजाने अनायास
आकर मेरे आस-पास
चेतना की खिड़की से
एक नयी सुबह का
जीने की
एक नयी वजह सा
एक सुनहरा,
एक रुपहला
खुशनुमा सा,
एक दुआ सा
अहसास एक बिंदास
पल-पल बिखर रहा था

और सामने कैलेंडर से
एक नया सा रूप धर के
बनकर एक नयी तारीख,
महाकाल का नव आशीष,
नयी सुबह की नयी सीख
नयी सुबह की नयी किरण
नवजीवन का सम्मिलन

मेरा अपना आज सामने
एक नयी मुस्कान बन
मेरी एक पहचान बन
एक नये अंदाज सा
एक नये आगाज़ सा
झर झर, झर-झर
झरने सा झर
कण-कण
बिखर रहा था

और मेरा सोया सा,
ना जाने क्यूँ,
कब से खोया सा
मेरा अपना आप खुद ही
पल-पल निखर रहा था

द्वारा : सुधीर अधीर

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