कहानीलघुकथा
शीर्षक
*बेटियाँ व नदियाँ*
पहाड़ियों व कन्दराओं में क्रीड़ा करती नव उद्भवित नदियों को विचरते देख पर्वतराज, पत्नी श्रृंखला से कहते हैं, " प्रिये ! देखो ज़रा अपनी बेटियों को, कितनी प्रसन्न हैं। "
" हाँ महाराज, आपकी राजकुमारियां जो ठहरी। सदा मचलती उछलती अपनी ही धुन में मस्त रहती हैं ये। यहाँ और काम ही क्या है। ऊपर से आपका लाड़ दुलार। "
पर्वतराज सोचने लगे कि संसार में सभी बेटियों का भाग्य, विधाता द्वारा एक जैसा ही लिखा जाता है।
यही सोच वे पत्नी को समझाने लगते हैं, " देखो रानी, संसार की सभी बेटियों को मौज करने के लिए एक बचपन ही तो मिलता है। हमारी लाड़लियों को भी यहाँ से नीचे उतरना है। फिर तो काम ही काम। आराम तो इनके नसीब में लिखा ही नहीं है।"
श्रृंखला दुखी होती है, "मत याद दिलाइए जी। वहाँ तो सबका भला करते करते युवावस्था में ही ये बुढ़ा जाती हैं। ये भी कैसी परम्परा कि सैकड़ों सलिलाएँ मात्र पाँच समन्दरों को वर लेती हैं। हाँ, द्रोपदी के अवश्य पाँच पति थे। ये बहु विवाह प्रथा भी अब तो समाप्त हो गई है। हमारी ही बेटियों के साथ ऐसा क्यूँ जी ? "
पर्वतराज गहरी साँस लेते हैं, " क्या करें, हमारी राकुमारियाँ इसी में खुश हैं। सारी मिठास को खारी बना अपना अस्तित्व ही मिटा देती हैं। हाँ , ये मानवी बेटियां अब जागरूक हो गई हैं। यही क्या कम है।
सरला मेहता