कहानीलघुकथा
#शीर्षक
" आंटी जी " 💐💐
म़ैने अपने जीवन में कई परिस्थितियों को देखा है और बचपन से लेकर आजतक कितने ही तीज-त्योहार की याद अभी भी ज्यों की त्यों सहेजी हुई सी है। ,जिनमें से कुछ छोले पूड़ी सी नमकीन और कुछ हलवे की मीठी यादों सी मजेदार।
जब हम छोटे थे ज्यादा इधर-उधर जाने का रिवाज नहीं था पर घर में ही लंबे-चौड़े परिवार में मामियां, चाचियां , और मौसियों के बीच घूम-घूम कर बच्चों के कन्या पूजन और खीर-पूरी खाने का रिवाज अवश्य था।
वो दो दिन बस हमारे होते थे, सिर्फ हमारे। हम पूरे साल इंतजार करते उन दो दिनों का जब हमारे आधे भरे गुल्लक अचानक से भर जाते।
घर-घर घूम कर लाल चुन्नी, माथे पर बिंदी,हलवा-पूरी कटोरियां कितना आनंद आता था हम सब उपहार में मिले सिक्के , चवन्नी ,अठन्नी, और कंही-कंही मन्नतें पूरी होने पर दो और पाँच के हरे-हरे नोट 😊😊
अब आज जब मैं अपने फ्लैट की बॉलकनी में खड़ी हूं। सुबह से ही सोसायटी की अंदर वाली सड़क पर कंजक बनी बालिकाओं की भागादौड़ी देख रही हूँ ,
" सुन-सुन तो, थोड़ा सा मेरा थैला थामेगी "
"क्यों भला ?"
"थोड़ा भारी है "
" कितने पैकेट हुए ?"
"मेरे पास छह पैकेट हैं "
"अरे... मेरे पास तो पाँच ही है कौन सी 'आंटी' ने नहीं बुलाया मुझे "
बच्चों के चेहरे पर वही रौनक ,वही चमक लगभग वही साज-सज्जा।
"तो फिर फर्क क्या है?"
बस इतना है, चाची, मामी और मौसियों की जगह 'आंटी जी' ने ले लिया? हाँ सही पकड़ा है आपने 😀😀
आज सिक्के , बड़े नोट और गिफ्ट बन गए पर "कंजक और कंजिकाओं का मन" अब भी वही है 👍👍
वक़्त कितना गुजर गया। इन्हें देख कर वो पहले जैसा बचपन वाला त्यौहार अब भी वैसा का वैसा ही लग रहा है !
कम से कम मुझे तो ! 🙋🙋
सीमा वर्मा