कहानीलघुकथा
#शीर्षक
" जन्म-कुंडली " 💐💐
हर माँ का सपना होता है कि वह अपनी नाजो से पाली बेटी को सोलह श्रृंगार में उसके पति के घर विदा करे। लिहाजा मैं भी अपवाद नहीं थी। तिनके-तिनके जोड़ कर जैसे चिड़िया अपना घोंसला बनाती है। वैसे ही मैं भी हंसा की शादी के सपने संजोती गई। वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खड़ी उतरती है।
वह जितनी सुंदर है उतनी ही मेधावी भी । स्वभाव से शांत ,सौम्य हंसा घर-बाहर सबकी चहेती।
एक माँ को इससे ज्यादा और क्या चाहिए?
उसे देख इतराती हुई मैं उसके पिता से कहती ,
" देखना इसके लिए मैं चाँद सा दूल्हा ढू़ढ़ूगी " और वे मुस्कुरा देते।
एक दिन हमारे घर हमारे गाँव के पंडित जी आए हुए थे। हमने उनका उचित आदर सत्कार किया । साथ ही सोची ,
" लगे हाथ इनसे बिटिया की जन्म-कुंडली दिखवा लेती हूँ "।
बस दिक्कत वंही से शुरु हो गई।
"बिटिया की कुंडली में तो घोर अमंगल है बहूरानी, इसे पतिसुख से वंचित होना पड़ेगा " पंडित जी मुँह से सुन कर मेरा मन घोर अमंगल की आशंका से कांप उठा। इस प्रकार की किसी अनहोनी को टालने हेतू मैं पंडित जी के पैर पकड़ते हुए,
" कोई उपाय बताइए महाराज, इसे दूर करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ"।
" शांत हो जाइए जज़मान, हर अमंगल का समाधान है"
"सर्वप्रथम इसका नाम बदल दीजिये "
"क्या कह रहे हैं आप इस उम्र में नाम बदल दूँ ?" अभी उसे कितनी ही परिक्षाओं में शामिल होना है।" मैं टोक पड़ी बीच में ही।
"नहीं तो फिर शनिवार के दिन प्रातःकाल में पीपल के पेड़ से इसके फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइये "।
पंडित जी ने मुझे पहली वाली युक्ति को नकारते हुए देख दूसरी युक्ति सुझाई।
" तुम्हें क्या हो गया है माँ ? इस बार हंसा टोक उठी
मैं ने इशारे से उसे आंखें दिखा कर चुप करा दिया।
"तुम्हारी नास्तिकता का परिणाम तुम्हें ही भुगतना होगा बेटी, यह मंगल दोष किसी को नहीं छोड़ता " अब पंडित जी सीधे उसी से मुखातिब होते हुए बोले " ,
" सोच लो एक और आसान और सीधा रास्ता है,
" किसी बकरे से प्रतीकात्मक विवाह कर लो, यह तुम्हारे सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए होगा "।
बरदाश्त से बाहर होती बात सुन कर हंसा पैर पटक कर ,
" हद हो गई माँ, ये पंडित, पुरोहित जी टाईप लोग तुम जैसे लोगों की ही ताक में रहते हैं "।
"जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और फंसा लिया जाल में, लेकिन मैं इनके चंगुल में नहीं फंसने वाली "।
मैं अब प्रतिरक्षा की मुद्रा में आ गई थी,
पंडित जी के सामने ही लगभग गिड़गिड़ाती हुई बोली,
" देख बेटा यह सब मैं तेरे भले के लिए ही कर रही हूँ । प्लीज मुझे समझने की कोशिश करो "
"बस एक बार तुम्हारी शादी हो जाए , तुम ठीकठाक रहो फिर करती रहना अपने मन की। "
जिसका ठीक उल्टा प्रभाव उस पर हुआ। मैं क्या सोची थी और क्या हो गया?"
हंसा तो गुस्से से आग-बबूला होती भुनभुनाई ,
" मैं यह जाहिलों जैसे काम हरगिज नहीं करने वाली हूँ , अगर ये सब करने से अपशकुन मिट जाते ? "
"तब तो कोई अनहोनी ही नहीं घटती माँ मैं इससे बेहतर शादी नहीं करना पसंद करूंगी ।"
" मैं पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो कर आजीवन अविवाहित रहना पसंद करूंगी ना कि इनके कहे अनुसार यह ढ़ोंग " कहती हुई पैर पटकती उठ गयी।
मैं तो हक्की बक्की सी रह गई। उधर पंडित जी भी मुआमला बिगड़ते देख अपनी पोथी-पत्रा समेटने लगे हैं।
और हंसा के पिता मुस्कुराते हुए हंसा की हाँ में हाँ मिलाते हुए मुझे ही प्रताड़ित कर रहे,
" मेरी बेटी बिल्कुल सही कह रही है। क्या रखा है इन बातों में उसे आगे पढ़ने तो दो , इन बातों से उसका आत्मबल गिरेगा ",
"उसके आत्मसम्मान की जरा सी भी कद्र नहीं है तुम्हें? "
हैरत में पड़ी मैं , " हंसा की माँ समझ नहीं पा रही हूँ , आखिर गलती कहाँ और किस तरह हुई ?" मैं उसकी हित की सोचती ! कब और कैसे इतनी नादान बन गई ?
स्वरचित /सीमा वर्मा