कवितालयबद्ध कविता
गाडी़ के चलते, कुचलते पहियों से
लिपटता इंसानी खून
टायरों के दायरों के
तले सिसकता,
सिमटता, निपटता कानून
कानून का खून हुआ है
या कानून बनाने वालों
और चलाने वालों ने
मिलकर यह खून किया है ?
सड़क पर खून बनकर
टपकते कानून ने ही
खुद को यूँ रंजूर किया है ?
क्या सचमुच कानून ने
कठपुतली बन जाना
यूँ मंजूर किया है ?
क्यूँ सोचने को इस तरह
मजबूर किया है
सचमुच कितना डरावना है
यह मंजर
दिन-दहाडे़ मानवता के
सीने में घुँपता खंजर
एक बाप का सीना छलनी है
एक माँ की ममता रोती है
और घोडे़ बेचकर,
कानों में तेल उँडेलकर
व्यवस्था सोती है
लोकतंत्र बनता हुआ
एक ठोकतंत्र
बेरोकटोक एक चोटतंत्र
सनसनी सी फैलाता
एक शाॅकतंत्र
भद्दा सा एक जोकतंत्र
यह गणतंत्र क्यूँ बन रहा
एक निर्मम सा गन-तंत्र
आज निरंकुश हो बना
यह धनतंत्र, बलतंत्र
जेहन में उमड़ते हैं यूँ
आहत करते से सवाल
कोरोना क्या कुछ कम था,
जो उठ रहे ऐसे बवाल ?
क्या सच है और
क्या है झूठ?
क्या हक है और
क्या है लूट ?
नहीं जानता मैं
यह सब कुछ,
पर इतना कह सकता हूँ
हर लूट को मिल रही छूट
अर्थतंत्र के एक पहिये की
धुरी आज यूँ रही टूट
मानवता यूँ त्रस्त कि मुँह से
शब्द रहे ना फूट
आज फूट ही रणनीति है
जिसको चाहे उसको लूट
जनमन यूँ संतप्त है
तंत्र इतना भ्रष्ट है कि
नैतिकता की रीढ़
गयी है टूट
ये दृश्य मन में
चल रहे चलचित्र से
है पूछता जमीर मेरा
प्रश्न कुछ विचित्र से
क्या मानवता कहीं
देश में जिंदा है ?
है तो फिर क्यूँ
सच को नंगा देखकर
आईना कोई कहीं
लगता नहीं शर्मिंदा है ?
क्या सचमुच यह अब
इंसानों की बस्ती है ?
क्यूँ जिंदगी इंसान की
अब इतनी सस्ती है ?
क्या हम फिर से
आदिम युग में
लौट रहे हैं
या फिर कहीं
किसी मन में
स़वेदना अब भी बसती है ?
अगर शेर के सामने
बकरी की इतनी ही हस्ती है
फिर कैसा यह रामराज्य है ?
कह रही दो बंद अँखियाँ
" शुक्रिया, न्यू इंडिया
क्या खूब खोजकर लाये हैं
अच्छे दिन का यह आइडिया
क्या खूब चलाया जिंदगी पर
मौत का बेरहम पहिया "
गौतम, गाँधी की धरती पर
क्यूँ हिंसा का साम्राज्य है ?
क्या यही रामराज्य है ?
देखो, खडा़ वो बुत बना
दिल्ली में कौन है ?
गर फकीर है तो इस पर
अब तक क्यूँ इतना मौन है ?
क्या उसकी दृष्टि में
मानवजीवन इतना गौण है ?
यह लहू-कथा नहीं लघुकथा
यह तो करवट बदलता इतिहास है
हम आहट जिसकी सुन रहे
वो परिवर्तन कहीं आस-पास है
वो परिवर्तन कहीं आस-पास है
द्वारा: सुधीर अधीर