कविताअतुकांत कविता
गीली मिट्टी तप के थोड़ा जरूर दरकती है
पर अच्छे से आकार मे भी तो पकती है
मीठी नदिया समंदर में थक के मिलती है
पर मैदानो को हरियाली से भी तो भरती है
बूढी माँ के माथे पे आज लकीरें गहरी दिखती हैं
जवा चेहरो पे मुस्कान वही तो भरती है
शमशान पे मेरी जो रूह की आँच ठण्डी है
भर के रौशनी गयी जो दिलो में , आँखों के कोरो से हलकी सी बहती दिखती है