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बन फकीरा - Deepti Shukla (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

बन फकीरा

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वो डरता था बचपन में, एक कदम बढ़ने से, गिरने से, सम्भलने से
पर बजाता था तालिया, देख आसमां में उड़ती पतंगों को पेच लड़ाते हुए
तूफां न आ जाये भावनाओ के दरिया में , इस डर से, दरिया को उसने बहने न दिया
कर लिया अश्को से अपने खारा वह दरिया,

जो उसने कभी बहने ही न दिया
कही कुछ खो न दूँ पाके, सो आँखे मूंदे निकाल दी डर के सारी जवानी
कौन था खड़ा दिल के दरवाजे पे, नादान ने कभी घर के झरोखे से बाहर झाँका ही नहीं
बूढ़ापे में भी रहा सोया, कि कहीं फिर इस दिन की रात न हो जाए,
इस डर से उसने, सुबह चादर को अपने तन से उठने ही न दिया

और लो, दुनिआ ने भी जान उससे बेजान , अपने कंधो पे लिआ,

हाय राम, जिन्दा ही दफन किया,

“ये कैसा जीवन, यह कैसी जीवनशैली,
क्या जिंदगी इतनी ही थी अनबुझ पहेली?

जीवन तो जीने का नाम है,
जिसमे भाव हो, नदी सा बहाव हो,
तो बन फकीरा, कुछ देके फ़कीर हो,
तू किसी की सुबह, किसी की तकदीर हो।”

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