कविताअतुकांत कविता
माँ की पीड़ा
माँ चरखा चलाती थी
फुर्सत मिलते ही
तब मैं नहीं जानती थी
कि माँ सूत नहीं कात रही
वो समेट रही थी
लोगड़ में अपने दर्द...
माँ चक्की चलाती थी
शाम सवेरे पसीने से लथपथ
तब मैं नहीं जानती थी
माँ आटा नहीं पीस रही
वो पीस रही थी
अंतर्मन में उठती टीस को
माँ पानी लाती थी
सिर पर धर मटका
तब मैं नहीं जानती थी
माँ नहीं भर रही थी मटका
वो रिता रही थी
देह की बेचैनी को कुएँ में
अब ना माँ का चरखा रहा
ना चक्की और न ही कुएँ!!
अब माँ गुनगुना लेती है
अपनी पीड़ा गीतों में
मगर अब वो भी
कोई नहीं सुनता
माँ अब करवटें बदलती है
सारी पीड़ा की
चुगली कर देती हैं
बिस्तर की सिलवटें
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा