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माँ की पीड़ा - एमके कागदाना (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

माँ की पीड़ा

  • 254
  • 4 Min Read

माँ की पीड़ा

माँ चरखा चलाती थी
फुर्सत मिलते ही
तब मैं नहीं जानती थी
कि माँ सूत नहीं कात रही
वो समेट रही थी
लोगड़ में अपने दर्द...
माँ चक्की चलाती थी
शाम सवेरे पसीने से लथपथ
तब मैं नहीं जानती थी
माँ आटा नहीं पीस रही
वो पीस रही थी
अंतर्मन में उठती टीस को
माँ पानी लाती थी
सिर पर धर मटका
तब मैं नहीं जानती थी
माँ नहीं भर रही थी मटका
वो रिता रही थी
देह की बेचैनी को कुएँ में
अब ना माँ का चरखा रहा
ना चक्की और न ही कुएँ!!
अब माँ गुनगुना लेती है
अपनी पीड़ा गीतों में
मगर अब वो भी
कोई नहीं सुनता
माँ अब करवटें बदलती है
सारी पीड़ा की
चुगली कर देती हैं
बिस्तर की सिलवटें

एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा

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Nidhi Gharti Bhandari

Nidhi Gharti Bhandari 3 years ago

सुंदर रचना

एमके कागदाना3 years ago

हार्दिक आभार जी

वो चांद आज आना
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