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स्वरलहरी - Deepti Shukla (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

स्वरलहरी

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तेरे ये दो नयन, जिव्या और अधर
सब रहें कितना ही मौन भला
पर तेरे हाथों की वेणु और
ये चंचल और चपल
अष्टसखी सी उंगलियां
जो हों आतुर और अधीर
ना करती तनिक भी तो विश्राम l
मिलने को आतुर ये व्याकुल
मन की लहरियां ढूंढ ही लेंगी
कोई सुर, कोई तान
है पूर्ण विश्वास मुझे l
तेरे मौन के स्वर
हैँ बड़े ही चातुर
वो आ ही जाएंगे
वेणु के छिद्रो से होकर बाहर
मेरे रोम रोम में मिलने को
कोई तो स्वरलहरी बन कर l

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