कविताअतुकांत कविता
घर का एक दीपक बुझ गया
दूसरा प्रदीप था जा अलग बसा
लक्ष्मी अनब्याही घर में थीं
धनलक्ष्मी रूठी बन में थीं
मकान डह रहा था
दीवारों को हाथों की जरुरत थी
मा बाप को सहारे की जरुरत थी
वो टूट रहे थे और
रह रहे थे टूटे घर में..
दरो दीवार छत और समाज
के पत्थर देह पे पड़ रहे थे
साथ खड़ी हुई फिर उनकी निशा
घर को देने फिर नयी एक दिशा
टूटी थीं खुद हाँ पर उठ खड़ी हुई
वज्र सी ले लिया उंगली पर अपनी
अम्मा पापा के सपनो का जहाँ
नन्हें पंछियो को उड़ने की जरुरत थी
सो एक एक कर छत से नन्हें पंछी उड़ाती गई
और टूटे घर को बचाने दरो-दीवारों बनती गई l