कविताअतुकांत कविता
प्रीत कर तो सम्पूर्ण कर,
प्रीत में कुछ ना शेष
तू कदम्ब मैं कालिंदी
में नदी प्रेम की
भरू सूखे तरु में प्राण
पाषाण से हृदय में भी
डालू अपनी जान
रीते रस्तो मे भी
रिस्ती रिस्ती
हौले हौले आऊ
ठन्डे हिमालय से भी देखो
ठंडक मन की पाऊ
और संग तेरे हिलमिल
झिलमिल झिलमिलाउ
धरा पे हरियाली लाऊ
रे कान्हा
मैं तोहरी होत चली जाऊ