कविताअतुकांत कविता
प्रेम घृणा अपना पराया सब पत्ते खुल गये बंधन सारे टूट चुके हैं अब बस चन्द धागे शेष हैं...कहीं उनमे ही उलझ ना जाऊ? क्या सब धागे हटा दू पर वो तो मेरे वस्त्रो से निकले हैं..मेरे तन से मेरे अंतर्मन से चिपके हैं...हटाए अगर तो बहुत कुछ दिख जाएगा... ये हुनर दिखाने का कहां मुझमे आ पाएगा ?