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अनजाने रिश्ते - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

अनजाने रिश्ते

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*यादों के झरोखे से*
     *************
" अनजाने रिश्ते "

कुछ रिश्ते बिन बोले भी बन जाते हैं..

सन 1960,
तब मैं कानपुर के जी एन के इंटर कालेज सिविल लाइंस में सातवीं क्लास में पढ़ता था।मेरे घर से स्कूल एक किलो मीटर दूर पड़ता होगा।
मैं हटिया (मेरे मोहल्ले का नाम)से मनीराम बगिया , चौक सराफा ,बड़ा चौराहा होते हुए कालेज जाता था।
लग भग रोज ही ऐसा होता कि मुझे  चौक के मोड़ पर बाइस, तेईस वर्ष की एक महिला मिल जाती जो मेरे कालेज के थोड़ा आगे पड़ने वाले कैलाश नाथ महिला इंटर कालेज में पढ़ाती थी।
यहां से मेरे कालेज पहुंचने तक हम लोग करीब साथ साथ ही चलते।
वह महिला सावली जरूर थी पर उसके सावले रंग में भी कुछ खास था।चेहरा गोल, बैजंती माला की तरह था। बालों में वह कभी कसा और कभी ढीला जुड़ा बना कर रखती।कभी कभी पोनी टेल भी बनाती और कभी बाल खुले हुए भी रखती।उसके कंधे चौड़े थे गर्दन लंबी और सुंदर थी।  कुछ बड़े गले की ब्लाउज और मोती की मालाउस पर खूब सजती थी।वह ज्यादा तर सिल्क की साड़ी , चिकन या उड़ीसा की काटन धोती पहनती थी। वह भी बंगाली स्टाइल से। सबसे ज्यादा उनके उन्नत मस्तक  पर बड़ी सी लाल बिंदी और हिरनी जैसी आंखों में हल्का काजल गजब ढाता था। उनका कद पांच फुट चार इंच रहा होगा।
यानी कुल मिला कर उनका लुक  एक ऐसे माडल जैसा लगता था जो सूटिंग करने जा रही हो।
मैं उस समय बारह साल का रहा होऊंगा जब मैंने उन्हें पहली बार देखा था।मेरे लिए उनकी इस ख़ूबसूरती का कोई खास मतलब नहीं था।
   सबेरे का साढ़े नौ का समय होता, उस समय दुकान दार अपनी दुकान खोलने की तैयारी कर रहे होते थे।करीब करीब सारे बाजार के लोग उसे नज़र भर कर देखते जरूर थे ,पर उस महिला को मैने कभी गर्दन घुमा कर किसी को देखते नहीं देखा।उनकी निगाह हमेशा बिलकुल सीध में ही रहती।
पर पता नही क्यों मैं जब भी बगल से निकलता तो वह मुझे एक बार देख जरूर लेती थी।बाद में तो कभी कभी उनके और मेरे दोनों के चेहरे पर हल्की मुस्कान भी आ जाया करती थी।
जाहिर है उनकी यह मुस्कान उसी तरह की होती, जैसे बड़े लोग बच्चों को प्यार से देखते हैं।वह मुझसे थीं भी दस साल बड़ी।
करीब चार साल मेरा और उनका ये मौन रिश्ता कायम रहा, फिर फर्स्ट ईयर में मुझे साइकिल मिल गई और ये रिश्ता खत्म हो गया।इसका मुझे कोई फर्क  नहीं पड़ा।
अब दो चार महीने में कभी वह लौटते हुए मुझे कालेज के गेट पर मिल जाती तो दोनों के चेहरे पर  पहले वाली हल्की मुस्कान अनायास ही आ जाती।
दो साल बाद मेरा यह कालेज भी छूट गया और  आगे की पढ़ाई के लिए मैं डी ए वी कालेज जाने लगा।
  यादों के पुलिंदे में  तमाम यादों की तरह ये सब  भी कहीं सिमट कर रह गया।
   सन 1990 में
मैं अपने बैंक की बिरहाना रोड ब्रांच में काम कर रहा था तभी मुझे हाथ में पास बुक लिए एक महिला दिखीं, मुझे पहचानते देर न लगी क्योंकि वह अब तक बहुत कम ही बदली थी। वही माथे पर बड़ी सी बिंदी और बंगाली अंदाज़ की करीने से पहनी हुई उड़ीसा की  कलात्मक  सूती साड़ी, वह भी मुझे पहचान गईं उनके मुंह से निकला "आप यहीं काम करते हैं?"ऐसे अवसर पर  जो मुस्कान और खुशी आनी चाहिए वह अनायास ही  दोनों के चेहरे पर  आ गई थी।
     मैने उन्हे अंदर बुला कर पास रखी कुर्सी पर आदर पूर्वक  बैठाया, बैंक का जो काम था वह तो कर ही दिया।
चाय के साथ बात चीत का सिल सिला भी  चलता रहा। भले ही विगत पच्चीस वर्षों में हम लोगों ने कभी एक दूसरे से एक शब्द भी बात न करी हो पर रिश्ता तो पच्चीस साल पुराना ही था। वो आज बातों में खुल गया, जिसे हम बंगाली महिला समझते थे वह मिश्राइन निकली।
   उसके बाद जब भी उनको बैंक का कोई काम होता वह मेरे पास ही आने लगी, वह बात चीत में बड़ी हंसमुख और जिंदा दिल निकलीं।
  जब हम लोग एक दोस्त की तरह हो गए तब मैने एक दिन पूछा ,आप अभी भी कालेज क्या उसी रास्ते से पैदल जाती  हैं? उन्होंने कहा "आप ये क्यों पूछ रहे हो?"
मैने कहा, मैं जब आपके साथ  चलता था तो देखता था , बाजार के बहुत से लोग पलकें बिछाए आपका इंतजार करते थे, मेरी बात सुन कर वह बोलीं "मुझे तो ये  नही मालुम, "उनके इस नहीं का मतलब था की इस विषय पर मैं और खुल कर बात करूं।

अच्छा तो मुझे भी लग रहा था इस विषय पर बात करना,
मैने कहा आपकी तरह  आपका इंतजार करने वालों की  उम्र भले बदल गई हो पर उनकी गिनती  पहले से कम नही हुई होगी।मेरी बात सुन कर वह जोर से हंसीं।

शायद पचास की उम्र वाली किसी महिला के लिए इससे सुखदायक कोई अन्य शब्द नहीं हो सकते हैं।
उन्होंने कहा "गोपाल जी आपका वह भोला भाला  चेहरा और काजल लगी आंखें मुझे अभी भी याद हैं।" (उस जमाने में 13,14,साल की उम्र तक मां लड़कों को भी काजल लगाया करती थीं )"तुम जब मेरे साथ चलते थे तो मुझे  पता नहीं क्यों एक तरह की सिक्योरिटी फील होती थी, कुछ दिनों तक मैं  तुम्हारा इंतजार भी करती रही थी। "

   सोचता हूं समय भी क्या रंग बदलता है पच्चीस साल तक जिससे कभी बात न करी हो उससे दोस्तों की तरह गुफ़्तगू करने के अवसर भी अचानक मिल जाता है।

उनके बेटे की शादी हुई तो वह निमंत्रण देने मेरे घर आईं थी, मैने भी उन्हें अपने बेटे की शादी में निमंत्रित किया था, अब तक हम लोगों में पारिवारिक रिश्ता कायम हो चुका था।

*सन 2010,*,
आज सुबह जब अखबार पढ़ा तो कलेजा धक से रह गया, मैंने पत्नी को आवाज लगाई, सुनो, पदमा  भाभी (बदला हुआ नाम) नहीं रहीं।
"क्या कुछ बीमार थीं?"
पता नहीं।
अखबार पर मेरे आंसू की कुछ बूंदें उनकी तस्वीर पर गिर गयीं, उनका सरल और हंसमुख स्वभाव देर तलक याद आता रहा,
अखबार में छपी फोटो देख कर मैं सोच रहा था बाजार के सैकड़ों वो लोग जिन्होंने कभी इनसे बात भी नहीं की  और शायद नाम भी न जानते हों पर इनके बाजार से  गुजरने  और दीदार करने का वर्षों तक रोज इंतजार किया था, वह लोग भी ये फोटो  पहचान तो गए होंगे।
कौन भूलता है ऐसे रिश्तों और शक्लों को।सच कहूं  शायद मैं और आप भी।

*यायावर गोपाल खन्ना*
*3,10, 2021*

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दादी की परी
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