कविताअतुकांत कविता
ममता की छाँव
माँ का आँचल जीर्ण -शीर्ण
सा हुआ पड़ा था
जल रही थी धूप में सिर से
उसके आँचल जो हटा था |
सिर खुला देख अपनों ने बस
उसको उलहाने ही दिए
ये ना देखा आँचल तले उसके
मैं छाँव में खड़ा था |
छोटा था मैं
मैने भी कहाँ उसका दर्द समझा
पास ही पेड़ की छाँव देख
जा उससे दूर खड़ा हुआ था
बेबस सी माँ तब भी आँचल फैलाये
आसभरी आँखो से देर तलक़ मुझको तकती रही
पर मैं नहीं आया...
और जो दो चार सिक्के राहगीरो ने डाले दिए थे
माँ को आँचल फैलाते, लाचार देखकर
आँचल के नीचे उपेक्षित से, गिरे पड़े
उसी जमीं पर जहाँ पहले में खड़ा था
सोचता था माँ उनको उठाती क्यों नहीं,
घर जाती क्यू नही ?
माँ का आँचल चन्द सिक्के भी तो
संभाल पाता नही था, घर का टाट
भी मुझे भाता नही था
उसकी ये सोच सालो मुझे सताती रही
अब जब बड़ा हो गया हू
अकेला हो गया हू ,
और अतीत मैं झाकता हू
ऐसा नहीं माँ को पैसो की कदर ही नहीं थी
या यूं कहू मेरे आगे उसको उनकी पड़ी ही नहीं थी
तो आज ये सोचता हू
कहीं ये मैं ही तो नहीं पड़ा था
जमीन पर मूल्यहीन सा...
काश की माँ से लिपटा रहता
तो उसका तन तो ढ़कता
मैं भी ममता की छाँव में होता,
उसके आँचल में पलता बदता
मेरे सीने से लगकर मन उसका भी ठंडक पाता
और जीवन को एक अर्थ तो मिलता
अब जब लौटा हू घर, तो सब ठीक कर र्दूंगा
माँ से कसके लिपटूँगा, माँ को भाव विभोर कर दूँगा