कविताअतुकांत कविता
मैंअंधेरी सी रात
जुगनू से तुम
देख तुमको तिमिर में
मैं श्यामा से हरी हो गयी |
सोई हुई थी अनमनी सी
देख तेरी हरित आभा
उड़ने को पर फैला
मैं अंगड़ाई ले जाग खड़ी हो गयी |
जी करता तुम संग
थोड़ी आँख मिचोली खेलूँ
कुछ सोए से सपने
ले हथेली पे, उनको थोड़ा छू लूँ
माना रात अंधेरी है
पर अंधियारा क्यो देखू
तुम संग उड़ मैं
रोशन गलियारे चल ढूंढू |
चंदा तारे क्या हैं
तुमको ये मालूम नही ?
हो तुमसा मद मस्त मगन
मैं भी थोड़ा जीलूँ |
बाँध चोटी में
आँधियारो को
हो ललित, हरित मैं
सुबह की सिंदूरी छू लूँ |
कुछ सोच मुस्कराती हूँ,
देख तुम्हे लरज ललचाती हूँ |
बन ख्वाइशें हज़ार
तारों सी टिमटिमाती हूँ
देखो तुम संग कैसी उन्मुक्त
कहीं दूर उड़ी चली जाती हूँ