कवितालयबद्ध कविता
दो कदम तुम भी चलो,
दो कदम हम भी चलें
देहों के धरातल से परे,
विदेह से होते हुए,
अहसास के साये तले,
दो कदम तुम भी चलो,
दो कदम हम भी चलें
चुपके-चुपके, दबे पाँव से
आते-जाते हर एक मोड़,
हर एक पडा़व पे,
हर एक धूप और छाँव में
जीवन का अमर गीत गाते,
कण-कण में संगीत जगाते,
नम पलकों में मोती छुपाते,
आनंद-दीप-ज्योति जैसे
होंठो पे मंद-मंद मुस्काते,
आते-जाते हर लमहे के साँचे में
हौले-हौले तुम भी ढलो,
हौले-हौले हम भी ढलें
दो कदम तुम तुम भी चलो ,
दो कदम हम भी चलें
फूलों में या फिर शूलों पे,
सुख और दुःख के बीच
पेंगते झूलों में,
कभी ना मिलने वाले इन
जीवन-नदिया के कूलों पे,
लमहा-लमहा
एक दूजे को ताकते,
अवचेतन में
एक दूजे के, झाँकते,
तुम उधर और हम इधर,
ना जाने मंजिल किधर,
इन भँवरों के पहरों से
उन्मुक्त होती लहरों पे
अहसासों की नाव पे,
जज़्बातों के गाँव में,
मिट्टी की खुशबू में रमते,
रचते-बसते, हँसते-हँसते,
कुछ मर्जी से, कुछ बेबस से,
खुद को थोडा़ तुम भी छलो,
खुद को थोडा़ हम भी छलें
दो कदम तुम भी चलो,
दो कदम हम भी चलें
मिलन के मधुमास की अमराई में,
अहसासों की धरती पे
जमती विरह की काई पे
एक बार तुम भी फिसलो,
एक बार हम भी फिसलें
जिंदगी से मिले
सबक की धूल झाड़ते,
जीने का एक नया
सबब तलाशते
एक बार तुम भी सँभलो,
एक बार हम भी सँभलें
जीवन के कड़वे साँच पे,
हालातों की आँच पे
एक बार तुम भी पिघलो,
एक बार हम भी पिघलें
वक्त के तूफानों के
हर एक कहर को,
जीवन-मंथन से निकले
हर एक जहर को
एक बार तुम भी निगलो,
एक बार हम भी निगलें,
मदहोशी की हाला से
मचली हर एक ज्वाला से
एक बार तुम भी जलो,
एक बार हम भी जलें
दो कदम तुम भी चलो,
दो कदम हम भी चलें
द्वारा : सुधीर अधीर