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घरोंदा - Deepti Shukla (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

घरोंदा

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एक वृक्ष
देखा पक्षी ने घना
और घरोंदा बना लिया
और क्या देखता
देखा तो था बहुत...
सूखी बावड़ी,
सूखी डाली, सूखे तने
तय किया बहुत
मरुथल का लम्बा सफर
थक चुका बड़ा , मन पपीहा
बूँद तो दूर, छाँव तलक नहीं
अब जो मिला वृटवृक्ष
ले चन्द तिनके टहनी से
बुन डाला ताना बाना मन का
और बस इक घरौंदा बना लिया
अब सुबह की किरणों संग
ठंडी बयार मे झूमे अंग अंग
खेले बड़ी अटखेली सखा बन
टहनियों पे लिपटी लता संग
फिर गाये प्यासा मन पपीहे सा
और तृप्त हो मूंदे नयना, मन मलंगा सा
जब नयना देखे, बूँदे बारिश की
तन पे लिपटी गीली माटी सी

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