लेखआलेख
संस्मरण
पनिया भरन कैसे जाऊँ
आज की मशीनी दुनिया में जब देखती हूँ कि पानी चाहिए तो बस नल खोलने भर की देर है। जल वितरण की व्यवस्था नगर निगम की ओर से होते हुए भी लोगों को चैन नहीं। धरती माँ की देह को छलनी बना देते हैं क्योंकि सन्तानों को बटन दबाते ही पानी चाहिए।
यह सब नज़ारा देख मुझे पैसठ वर्ष पुराना अपना गाँव याद आ जाता है। देवी स्थान होने से पहाड़ी इलाक़ा है। जलस्रोतों की कमी है। किंतु उस ज़माने में वहाँ एक भी नलकूप नहीं था। हाँ कलकल बहती छोटी सी नदी थी, कुछ मानव निर्मित ताल व पोखर थे। खेतों के बीच कुँए थे। गाँव में बावड़ियाँ थी व पीने के जल हेतु सकरी कुंडियाँ थी। और हाँ, कांक्रीट के जंगल नहीं, सचमुच के जंगल थे।
ढोरों को पानी पिलाने के पोखर अलग थे व लोगों के नहाने धोने के अलग। इन्हें खाल कहते हैं।
पीने का व वापरने का पानी कुंडी से भरकर लाना पड़ता था। सुबह शाम महिलाएँ अपनी तांबे पीतल की चमचम करती गागरें बगल में दबाए निकल पड़ती। हाँ काँधों पर नेज (रस्सी) भी लटकी रहती। जी हाँ, पनघट वाले दृश्य की कल्पना कीजिए। मुझ दस वर्षीय बालिका को भी पानी भरने का बड़ा शौक था। चल देती दादी के साथ अपनी गगरिया लिए।
कुंडी के बीचोबीच एक लंबी चट्टान जुड़ी रहती है। मेरी दादी एक पैर चट्टान पर व दूसरा पैर कुंडी के किनारे पर रख रस्सी में बंधी गागर डुबाती। फ़िर भरी गागर ऊपर खींचती। ऐसे में सबसे बातें चटकाते हुए पानी भरना बहुत भाता था। एक दिन शाम के वक्त मेरी दादी का संतुलन बिगड़ा और गागर के साथ वे भी कुंडी में गिर गई। लोग कहने लगे, " अब तो गई पटलन माँ (पटेल की पत्नी) गई, देवी माँ ज बचाय। " गनीमत कि जैसे ही वे पानी के ऊपर आई , उन्हें एक पत्थर का सहारा मिल गया। एक व्यक्ति ने अंदर उतरकर दादी को सम्भाले रखा। तब तक ऊपर से एक टोकरे पर चार रस्सियाँ बाँध कुंडी में उतार दिया। धीरे धीरे दादी को बाहर ले आए।
जिंदा थी पर कुछ मूर्छा आने लगी थी। उन्हें एक घुटने में अंदर तक ज़ख्म था। गाँव के एक दर्जी बाबा ने रोज ड्रेसिंग करके दादी को एक माह में ठीक कर दिया, बिना किसी डॉक्टर के।
उसके बाद दादा ने घर में ही कुंडी खुदवा ली। फ़िर एक काका पानी भरते थे। ऐसे में मेरी गाँव की कुंडी पर जाकर पनिया भरने की इच्छा अधूरी ही रह गई। पर सच कहूँ वहाँ का पानी आज भी वैसा ही मीठा व पाचक है।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर