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मैंने पूछा चाँद से - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मैंने पूछा चाँद से

  • 606
  • 17 Min Read

मैंने पछा चाँद से,
हाँ, मैंने पूछा चाँद से,

एक सुहानी साँझ की
खुलती जुल्फों पे ढलकी,
छलकी बनकर चाँदनी,
कुछ हल्की-हल्की,
मन को बरबस आकर छलती
एक पूनम की रात में
मैंने पूछा चाँद से,

" क्या तुम आज भी वही हो
बच्चों के चंदा मामा प्यारे,
उनकी नन्ही सुरमई सी
आँखों के अद्भुत सपनों को
रोशन करते,
मन के कोरे कागज पे,
इंद्रधनुष से रंग चुरा के
सतरंगी रंग-रोगन करते,
चमचमाते से नजा़रे

मम्मियों द्वारा बच्चों को
बहलाने के काम आते,
भैयादूज का पैगाम लाते
प्यारे से भैया दुलारे,

परदेस गये साजन के मुख का
बिंब समेटे एक दर्पण,
करवाचौथ की शक्ति बनकर
स्वीकारते श्रद्धा का अर्पण

मधुर मिलन की प्यास जगाते,
बन जाते उर की धड़कन

प्रेमियों का प्रेम-निवेदन
सफल बनाते
संदेशों का चिर संबल,
हर अधूरे संबोधन को
सिंबल बन देते अवलंबन

सजनी के मुख की उपमा बन,
बार-बार होंठों पर आकर
सरस बनाते प्रेमालिंगन

ना जाने कितने कवियों की
कल्पना का नीलगगन,
शिवमस्तक की शोभा बनते
श्वेत चंदन बनकर पावन
सचमुच कितने हो मनभावन

इस माँ प्रकृति के
लाड़ले से बेटे बनकर,
लगवाते मुख पर नजर का
टीका काजल

चाँद बोला मुस्कुराकर,
मोती पलकों पर झुलाकर,
मन में ना जाने कितनी,
जाने कब से भूली-बिसरी
यादों को फिर से बुलाकर,

बंधु, मैं तो हूँ वही,
बदले हो तो
बस तुम सब ही
मैं तो बिल्कुल
बदला नहीं

आज यह सब,
जाने कब की,
ना जाने क्यूँ,
किस कल की
बात कह रहे हो

इस भाग-दौड़, आपाधापी में
जाने कितना पीछे छूटे,
पल में अब तक रह रहे हो

हाँ, मैं बच्चों का मामा प्यारा,
उनकी माँओं का भैया दुलारा,
हर विरहिणी के विरह का,
वेदना-पूरित हृदय का,
मौन साक्षी बन सहारा,
आँसुओं के हर दरिया का
एक किनारा,
सदा रहा था,
सदा रहूँगा,

अपने रजतकणों से अब भी
सबके मन की अमर कहानी,
लिखूँगा, रचता रहूँगा,
बार-बार कहता रहूँगा,

चाँदनी की धार बनकर
बारंबार बहूँगा
और बहता रहूँगा

जज़्बात तुम्हारा ये बेशक
बडा़ ही खूबसूरत है
मगर आजकल नहीं दीखती
इसकी कोई जरूरत है

मेरा तो सबसे रिश्ता है
पर दूर, बहुत ही दूर-दूर का,
मगर तुम्हारा तो नजदीकी
हर रिश्ता मजबूर सा

देश बँटे, परिवार बँटे,
सब एक दूजे कटे-कटे,
लग रहा है हर कोई
खुद में ही मगरूर सा,
अपने ही मद में चूर सा,
बस खुद में ही सिमटा सा,
अपने मतलब से लिपटा सा
और बाकी सभी से
होता दूर-दूर सा

लगता है हर रिश्ता झूठा
जो होता था कभी अनूठा,
दूसरों से ही नहीं
हर कोई लगता
खुद से भी रूठा-रूठा


जाने क्या है मजबूरी,
बढ़ती जा रही है दूरी,
कितना भी हासिल कर ले
फिर भी मन में प्यास अधूरी

एक दूजे की चाह नहीं है
सब अपने-अपने ही सिमटे
दायरे में सिमटे-सिमटे
और किसी की तो
तुम्हें परवाह नहीं है

बदल रहा है स्टाइल,
बनावटी सी होती जाती
हर स्माइल,
आकाश क्या,
इस धरती को भी
देखने का समय नहीं,
दिल में किसी और की
थोडी़ सी भी जगह नहीं है

सब रिश्तों का सब्स्टिट्यूट
सोशल साइंस का इंस्टिट्यूट
बंधन का धागा अटूट
बन गया है मोबाइल
हाँ,बदल गया
सबके जीने का स्टाइल

मेरा क्या है ?
मैं तो बस कुछ
भरमाते से अहसासों का
खुशनुमा सा धोखा हूँ,
सूरज की अद्भुत छटा का
छोटा सा झरोखा हूँ

मुझमें कोई अहसास नहीं है
जिंदगी का एक पल भी
मेरे आस-पास नहीं है,

मैं तो बस एक सुंदर कल्पना हूँ,
हर कलाकार, हर चित्रकार की
तूलिका से रंगी हुई एक अल्पना हूँ

प्राणवायु भी नहीं है.
ब्रह्मांड का बेजान पिंड हूँ,
ब्रह्मा की सृष्टि, समष्टि का
छोटा सा एक बिंदु हूँ

स्वागत तुम्हारा बारंबार,
स्वीकार करो मेरा सत्कार,
कोटि-कोटि नमस्कार,
करते रहो बस चमत्कार,

जब हो मर्जी,
मुझ पर यूँ ही
आते जाओ,
अपना झंडा फहराते जाओ,
अहंकार का भूत बनकर,
दंभ का एक दूत बनकर,
जग पर महाशक्ति बनकर
छा जाओ, बस छाते जाओ,

मगर उससे पहले तुम
धरती पर रहना सीख जाओ,
प्रेम के ढाई अक्षर कहना
सीख जाओ,

आँखों से गंगा-जमुना की
दिव्य प्रेम की धारा बनकर
पल-पल बहना सीख जाओ,

जीवन की एक बूँद बनकर
बहना सीख जाओ
सच कहना सीख जाओ,

संतोष का मीठा फल खाकर
खुश रहना सीख जाओ

द्वारा : सुधीर अधीर

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