कवितालयबद्ध कविता
हैवानियत की हार।
गुलामी की निठुर उन बेड़ियों से मुक्त हैं लेकिन
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
अभय होके निरंतर घूमते दिन के उजाले में
लगा होता किरच में खून,खंजर और भाले में,
गुनाहों और दहशत का हमेशा दौर है चलता
लुटेरों के बढ़े आतंक का पर क्षार बाकी है।
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
अनय बढ़ता हुआ इनका, हुए निर्बन्ध मंसूबे
अनेकों ही तरह के पाप में आकंठ हैं डूबे,
नहीं घर-बार रक्षित है, नहीं है शील, मर्यादा
दशानन की भुजाओं का अभी संहार बाकी है।
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
चमन लूटा,सुमन के साथ नाजुक तोड़ दी डाली
विरह में सूखते किसलय, बची न चंद हरियाली,
न मिलती बौर की खुशबू,नहीं सौरभ गुलाबों का
अकेले में खड़ा बस एक हरसिंगार बाकी है।
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
किरण की एक तन्वी काँपती-सी डोर ही दिखती
गहन अँधियार में डूबी निशा की कोर ही दिखती
नहीं वो बात चंदा में लुटी अनमोल हैं निधियाँ
अभी घनघोर तम के पाश से उद्धार बाकी है।
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
जतन से बाँधना होगा, अबल, टूटे कगारों को
डुबोने के लिए उन्मत्त, बहकी तीव्र धारों को,
हजारों उग्र लहरों ने तरी को आन घेरा है
पकड़ पतवार हाथों में अभी मँझधार बाकी है।
निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी है।
अनिल मिश्र प्रहरी।