कहानीलघुकथा
#शीर्षकः
" मनमौजी "
"पिछले शुक्रवार को जब हम ऑफिस से लौटते वक्त भयंकर ट्रैफिक जाम में फंस गये थे"।
तब सिद्धार्थ ने गाड़ी की खिड़की से सिर निकाल कर रोड के उस पार खड़ी बिल्डिंग की छत पर घूम रहे व्यक्ति को देख कर ,
" यार हम यहाँ फंसे पड़े हैं और उसे देखो क्या मजे में घूम रहा है।"
सिद्धार्थ मेरे बचपन का मित्र है। हम दोनो कार पूल कर ऑफिस जाया करते हैं। वह बचपन से ही मनमौजी किस्म का है।
शुरु से ही हमारी टोली का सबसे खासम-खास शख्स हुआ करता था।
जिसे रोज की घटने वाली साधारण सी बात में कब, कौन सी बात विशिष्ट लग जाती? यह देख कर हम हैरान रहते।
" यार, इसमें भी क्या खास बात है? अगर हम भी उसकी तरह आजाद होते तो इसी तरह टहलते"।
" पर अपन तो ...? "
मन मसोस कर रह गया। दरअसल स्टेयरिंग को हाथ से पकड़े हुए मैं उकता गया था।
अगले दिन शनिवार के कारण हमारी दो दिनों की छुट्टियां थीं।
तीसरे दिन सुबह ही टेलीफोन की घंटी घनघना कर बज उठी।
" हैलो या...र... सिद्ध इतनी सुबह जगा दिया ?"
" हाँ मैंने साईकिल ले ली है,
ऑफिस थोड़ी दूर पर ही तो है। अब कौन रोज-रोज गाड़ी में बैठ कर समय जा़या करे?"।
" एक मुफ्त की सलाह दे रहा हूँ, ध्यान से सुन ले अगर मजे लेना है तो तू भी एक साईकल खरीद ले "।
" तुम और तुम्हारी मुफ्त की सलाह तुम्हें ही मुबारक "
" अब अकेले-अकेले ही ट्रैफिक जाम की बोरियत झेलनी होगी यह सोच कर ही जी उकता गया था "।
मैंने झल्ला कर फोन रख दिया।
लेकिन थोड़ी देर शांत रह कर अब सोच रहा हूँ।
" बात तो उसने लाख टके की कही है। "
स्वरचित /सीमा वर्मा