कहानीलघुकथा
#शीर्षकः
" बाढ़ "
भादो के महीने में टप,टपा,टप,टप घनघोर बारिश हो रही है। चारो तरफ तबाही के मंजर फैले हुए हैं। हर बार की तरह गँडक नदी इस बार भी पूरे उफान पर ह...हा...हा बह रही है। किसी अनहोनी की आशंका से लोग-बाग कांप रहे हैं।
वो तो भला हो इस बार उस पर बनने वाले पुल का निर्माण पूरा हो चुका है। जिससे गाँव वालो को बहुत सुविधा हो जाएगी ऐसा अनुमान है।
इस बार कोरोना काल में महानगरों में काम-धंधा बंद हो जाने की वजह से भाग कर आए हुए, सुरेश और सरोज दोनों परेशान से प्रकृति की विनाश लीला देख रहे हैं। उनके मकान की छत तो पक्की है। लेकिन गाँव के अधिकतर घर गरीबी रेखा के नीचे रह रहे किसानों के ही हैं।
जिनकी औरतें सिर पर चटाई ओढ़े झोपड़ी का बचाब कर रही हैं।
सुरेश के पास की जमा-पूँजी भी समाप्त होने पर है । इन परिस्थितियों में सरोज ने ही गृहस्थी की गाड़ी सँभाल रखी है।
वह पुराने कपड़ों से मास्क बना कर तैयार करती है। जिसे सुरेश साईकिल से मँडी में जा बेच आता है। जिससे मिले पैसों से ही उनकी गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चल रही है।
रोज की तरह तैयार मास्क थैले में भर कर सरोज चिंतित स्वर में बोली ,
"एते घनघोर बारिश में कल कैसे निकलब "?।
" कौनो हालत में निकले के त परी। अब पुल बन गईल बा,
"कौनो दिक्कत ना होई, भिनसरे निकल जाएब चिंता जौन करू"।
सोचते हुए दोनों ने रात लगभग जागते हुए ही काट दी है।
सुबह में द्वार खोलते ही सरोज सामने का दृश्य देख चिल्ला उठी ,
"देखीं त गजानन के बाबू का गजब भईल बा इ त पुले ढह गईल "।
सुरेश बाहर निकल सामने का दृश्य देख कर हताश हो वंही बैठ गया है।
माथे पर हाथ ठोकते हुए क्षुब्ध हो,
" हाए रे किस्मत ! आठ बरिस में बन कर तैयार होवे वाला इ पुल एक्को महीना हमनी का भूख नहीं मिटा सका "।
ताजा घटना क्रम में सरकारी, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के दौर शुरू हो चुके हैं।इन सबके बीच में उलझ कर रह गई है। बेचारी, निरीह जनता एवं उसके भूखे पेट का दावानल।
सीमा वर्मा /स्वरचित