कविताअतुकांत कविता
मैं बैठी थकी हारी
तुम बंसी बजाते थे
दिन भर की थकन
कान्हा तुम ही तो मिटाते थे
लड़खड़ाते थे जब कदम मेरे,
तुम कदंब का पेड़ बन जाते थे
कॅं|टो भरी राहो पे
कान्हा तुम ही तो पुष्प बिछाते थे
रूठती थी जो मैं तुमसे
तुम मुझको रिझाते थै
नित नयी माया दिखा करके
कान्हा तुम ही तो फिर रास रचाते थै
कहाँ गये वो दिन कान्हा
दर्द से इकसंग नयन में जब नीर आते थे
रोते थै हम संग कान्हा और खुद ही मुस्कराते थै