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मधुबन - Deepti Shukla (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकसंस्मरण

मधुबन

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मधुबन

आज वृंदा की तबीयत सुबह से ही कुछ ठीक सी नहीं थी l शरीर में थोड़ा सा भारीपन महसूस हो रहा था l ऐसा लगता है मानो कुछ अंदर से कुचल सा गया है...

उस दिन घर पर सुनी बात से अंदर जैसे बहुत कुछ बिखर सा गया है... हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि किसी की बात नें आहत किया पर इसबार बात किसी की नहीं उसके अपनों की थी... उसके मायके की.. दरअसल उसे अपनी दोनों भाभियों के बीच फोन पे हुई बातें कानों में पड़ गयी थी...

उस मायके की जिसे स्वर्ग बनाने के लिए नन्हे नन्हे हाथो ने कलम के साथ साथ वो उंगलिया भी पकड़ ली जो उसके छोटे भाई-बहिनों की थी.. कोई छोटा, कोई बडा और कोई दूधमुहा और सबसे बड़ी वो ... l

भरा पूरा परिवार, पास पड़ोस रिश्तेदार और उसपे भाव ऐसे कि माँ-बाप के कन्धो का बोझ खुद उठा चल पडी लम्बी पगडण्डिओ पर छोटे भाई-बहिनों की उंगली थामे...सुबह-शाम, घर-स्कूल हों या बाजार...

बेटी से कब माँ बन गयी... पता ही नहीं पडा.... सुबह स्कूल के लिए सबको एक लाइन से तैयार करती, बड़ो को डांटती "टिफिन नहीं रखा... बोतल तो लेता जा". और छोटो की टाई की नॉट ठीक कर पुचकारती, बाल सवारती...और फिर सबको स्कूल रवाना कर अपनी छोटी बहिन निशा के साथ खुद स्कूल भागती जाती..

दोनों बहनें एक स्कूल, एक ही क्लास में साथ-साथ पढ़ती थी ... पापा ने उसको एक साल बाद पढ़ाने के लिए बिठाया था..दोनों बहने एक ही क्लास में एक ही बुक से पढ़ सकेंगी ..जिम्मेदारिया जो थी उनपर ढेर सारी l

स्कूल खत्म होते ही दौड़ी-दौड़ी दोनों बहने घर आती छोटे भाई-बहन अभी आते ही होंंगे ....दीदी भूख लगी है फिर वही सब का रोना चिल्लाना होगा और दो मिनिट की मैग्गी से तो काम चलने से रहा l

माँ धूप में 2 साल के नन्हें के कमजोर पैरो की मालिश कर रही थी...."आ गई तुम दोनों... सुबह से इसने रो रो के नाक में दम कर रखा है और छोटो का स्कूल तो 11:00 बजे ही खत्म हो जाता है...इसे संभालूं या ..". मम्मी आप चिंता मत करो अब... हम हैं ना कहते हुए माँ के गले में बाहे डालती पीछे से छोटे मिंटू को मुट्ठी में बंद टोफिया थमा मुस्काती वृंदा बोली l

"आज स्कूल में कौन सा टेबल पढ़ाया सुनाओ तो जरा निकालो कॉपी और इधर आओ किचन में तुम"... आंखों से डराती हुई....बुला ले गयी वो अपनी सबसे छोटी नव्या को.... प्यार से काम भी तो नहीं चलता...
अभी बड़ा भाई भी आता ही होगा फटाफट से रोटियां सेकनी हैं नहीं तो हल्ला मच जाएगा.... इधर से भाई की माँ को झूठी सच्ची शिकायते, माँ की डांट फटकार
और मोटो-मिंटू का मासूम चेहरे l... दोनों बहनों ने फटाफट से बस्ता उतारा और लग गयी कमर कस रोटियां सेकने....साथ में स्कूल की पढ़ाई और शाम को सब्जी क्या बनेगी की प्लानिंग करते करते नव्या का प्लस माइनस ठीक करती जाती l

सब को खिला पिला....दोपहर की झपकी...
फिर छोटी की नयी फ्राक की फ्रिल और मम्मी केसाथ मिंटू की टोपी की बुनाई करती...यही दिनचर्या रहती उसकी l फिर रात माँ के साथ सबको खिला पिला, मिंटू और नव्या को किस्से कहानी सुना दोनों बहिने रात देर तलक पढ़तीl

अगले साल नाइंथ क्लास में आते ही नव्या नें आर्ट साइड ले ली... छोटी निशा डॉक्टर बनना चाहती थी उसे ज्यादा टाइम चाहिए होगा अब दोनों की क्लास अलग हों गयी और रास्ते भी पर लक्ष्य अब भी एक... माँ पापा की होनहार बिटिया बनना l ताकि गांव से शहर आने के माँ पापा के सपने को सार्थक कर सकेंl सपना *साक्छरता* का l सपना बेटों बेटिओं की बराबरी का l

ग्रेजुएशन तक आते पापा की चिंता की लकीरें साफ साफ दिखने लगी... भाई के एडमिशन में प्रॉब्लम आ रही थी....पापा कहते कुछ ना थे पर उनके कंधे झुकने लगे थे और माँ नन्हें की दशा से बुझ सी गयी थी.. नन्हें के पैरों में जान कम होती जा रही थी धीरे धीरे ...

घर की चहक अब सन्नाटे में बदल रही थी... उसके ठीक होने की कोई आस कुछ कम ही थी...एक एक कर सब डॉक्टर जवाब दे चुके थे l
तुलसी से अब घर में रुका नहीं जा रहा था...मन छटपटाता सा रहता था... छोटे भाई बहिनों के सहमे मासूम. चेहरे और माँ बाप की लाचार बेबस आँखे...
बड़ा भाई भी भटक सा रहा था कॉलेज की लाइफ में...

इसी उहापोह में एक दिन स्कूल इंटरव्यू देने चली गई और छोटो की पढ़ाई रुक ना जाये सो खुद पढ़ाई छोड़ टीचर बन गई मेरा क्या है पोस्ट ग्रेजुएशन बाद में कर लूंगी ... सोचते हुए बन गयी मैडम....
"बड़ी मैडमे बनी फिरती है सारी"
ऐसा ही कुछ बोल रही थी बड़ी भाभी मिंटू की बहु को को...और दोनों की चुभती हसी...आह जैसे फ़ास सी फस गयी..निशा नें भी तो डाक्टरी नहीं कर पाई थी ...
चल पडी थी वो भी बड़ी बहना के दिखाए रास्ते पर उसके पीछे पीछे...और साइंस की कोचिंग लेने लगी थी ताकि और ढेर सारे काबिल डॉक्टर बन सकें देश में
शायद नन्हें जैसे और बच्चों का इलाज हों सकेंगा l
और आज तक मैडम बनी हुई जिम्मेदारियां उठा रही है दोनों वैसी की वैसी 30 साल तो ही गए होंगे ... कुछ भी तो नहीं बदला सिर्फ चंद सफेद बाल और छाती झुर्रियों के...

आज उसका अपना भी छोटा सा परिवार है....छोटी तो चार कदम आगे निकली शादी भी नहीं की
और घर की रौशनी बन बैठी.. "कुंडली मार के बैठी है" यही बोलते है आजकल बड़े भैया भाभी उसको" पर तुलसी को ये तिलांजलि करने की सूझी ही ना थी तब
शादी करना भी तो जरुरी था, सो कर ली थी...
छोटो कि शादी में रुकावट ना आये l निशा से कोई पूछता तो कह देती मिंटू नव्या हैँ ना...वही हैँ मेरे बच्चें l

इधर वृंदा की जिम्मेदारियां बड़ी तो सही मायके और ससुराल की पर कभी लगा नहीं... बच्चे तो हंसते-हंसते पल गए... बचपन में ही मां बन गई थी ना मिंटू मोंटो की... एक भीनी सी मुस्कराहट गुनगुनी धूप संग लहलहाने लगी बन्जर चेहरे पर....... आज भी सब हॅसते हैं जब अपने बच्चों का नाम भूल कर उनका नाम ले पड़ती है..हंसी के ठहाके के साथ सीने में फिर हल्की सी टीस हुई ... दिल भारी सा है जैसे कोमल सी कोपल पर किसी ने जोर से मनो भारी चट्टान रख दी हों...और उसके नीचे दबी कोमल तुलसी... आँखों के सामने आने लगे वो दृश्य गाँव के खिलखिलाते फूल, जिनके बीच गुनगुनी धूप में गुनगुनाती नन्ही तुलसी खिलतीं थी
अब गाँव में तो कबका नहीं रहा और शहर में बनाया घर भी घर सा नहीं रहा...जो पत्थर सा कुचल के रख दे वो घर हो भी कैसे सकता है...अब सब बदल सा गया है...अब घर घर सा नहीं रहा अब घर उसका नहीं रहा...पर माँ पापा अभी भी उसी के हैं..जिम्मेदारी भी उसी की है...बहुत जिम्मेदार हैं न वो....और किसी से बोलती कुछ नहीं..एकदम मौन..बड़ी है..समझदार है ना वो.. कर्मठ.. चट्टान सी द्रण , धरती सी नरम.और मन तुलसी का सा सुंदर कोई उपवन...
जिमेवारियाँ तो ख़तम कभी हुई नहीं पर वो चट्टान सी डटी रही और कही दबी कोमल तुलसी की पौध से कुछ नन्हे नन्हे फूल चट्टान के हर दरार से निकलते पौध पर उगने लगे हैं...नयी ऊर्जा के साथ..नव्या मासी की ट्रैन आती ही होंगी कहते हुए उसकी बेटी ने आके बताया l
उसकी नव्या आ रही है दिल्ली से उसके मौन को स्वर देनें l इन स्वरलाहरियो नें ही तो मन की भारी चट्टान को छोटी उंगली पर उठा रखा... तुलसी के गिरिवर को जैसे गिरधारी नें ... अब क्या है.. मन वृन्दावन बन झूम उठेगा फिर से...मेरा मन फिर से मधुबन होगा...और मैंने मंद मंद मुस्कान से स्वागत द्वार खोल दिए l

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दादी की परी
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