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काल की मित्रता - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायकलघुकथा

काल की मित्रता

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एक व्यक्ति की काल से मित्रता थी. एक दिन बातों ही बातों में उसने काल से बहुत निश्चिंत होकर कहा,

" अब तेरे रहते तो मुझे कोई भय नहीं. तू तो मुझसे कभी धोखा नहीं करेगा ना ? "

"मैं तेरा मतलब नहीं समझा. तू कहना क्या चाहता है ? "

"अरे,इसमें ना समझने जैसा क्या है. काल जिसका मित्र हो उसे कौन मार सकता है ? "

काल ने बहुत गंभीर होकर कहा, " देख भाई, किसी गलतफहमी में मत रहना. मैं स्वयं नियति का दास हूँ. एक क्षण का जीवनदान भी मेरे अधिकार में नहीं है. "

" फिर इस मित्रता का मुझे क्या लाभ ? तू तो बडा़ निष्ठुर है."

" यह तो मेरा वृत्तिधर्म है. चल, इस दोस्ती की खातिर तुझे मैं कुछ संकेत भेजूँगा. रोक तो तुम मुझे नहीं सकोगे. तुम क्या मैं ही स्वयं को नहीं रीक पाऊँगा. मेरे हाथ भी बँधे हुए हैं "

" फिर भी कुछ तो करना चाहिए तुझे, दोस्त के लिए "

" बस मेरे संकेत तुझे समय-समय पर मिलते रहेंगे. उनको पहचानकर अपना इहलोक और परलोक सुधार लेना. बाद में मुझे दोष मत देना ".

यह कहकर काल एक अर्थपूर्ण हँसी हँसकर चला गया और फिर अपने नियत समय पर नियति का आदेश लेकर आ गया "

" अरे तू ? बिना कोई सूचना दिये आ गया, धोखेबाज ? "

" मुझसे वाट्सप, ईमेल आदि तामझाम तो नहीं होते. मगर मैंने ना जाने कितने संदेश भेजे. "

" नहीं, मुझे कोई संदेश नहीं मिला. झूठ बोलता है तू "

" याद कर, बारी-बारी से बताता हूँ.
तेरे बाल सफेद कर दिये. मगर तूने उन्हें रंग लिया.
तेरी दृष्टि धूमिल कर दी मगर तूने लैंस लगवा लिये.
तेरी टाँगों को कमजोर किया मगर तूने छडी़ पकड़ ली.
तेरे दाँत तोड़ दिये मगर तूने नकली सेट लगवा लिया.
तेरे चेहरे पर झुर्रियाँ बिखेर दी,तूने प्लास्टिक सर्जरी करवा ली.
तेरा पाचनतंत्र शिथिल कर दिया मगर तूने दवाई खानी शुरु कर दी.
तुझे हार्ट अटैक देकर जगाना चाहा और तूने बाईपास करवा लिया.
अब इस मृत्यु का भी कोई बाईपास है तेरे पास ? हो तो मैं कुछ और बंदोबस्त करके आऊँ. "

वह निरुत्तर हो गया. विवशता उसके चेहरे पर झलकने लगी. आखिर उसे मृत्यु के सामने आत्मसमर्पण करना ही पडा़.

यह जगदंबा प्रकृति भी तो महाकाल की अर्द्धांगिनी है.
इसने ना जाने कितने संकेत भेजे, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, असमय वृष्टि, भूमंडलीय तपन, बाढ़, सुनामी, भूकंप ये इस माँ के संकेत ही तो थे. विज्ञान हमारा सहायक है, इसे हम इस माँ का स्नेह पाने और माँ को हरे-भरे परिधान से सजाने, सुजला,सुफला,अन्नपूर्णा बनाने " वसुधैव कुटुंबकम् " को जीवन का आधार बना सकते थे.

प्रकृति हमारी माँ है और हम इसके बच्चे. हमारा बचपन हमें दूध पीने का अधिकार तो देता है, खून पीने का नहीं मगर हमने तो दुग्धपान के साथ-साथ रक्तपान भी किया है. हमने इस माँ को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझकर इसका पेट चीरकर रख दिया है और आज जब जगदंबा के अपमान से क्षुब्ध महाकाल तांडव कर रहे हैं तो हम " त्राहि माम् " कर रहे हैं.

महासंकट के इन क्षणों में भी हम परछिद्रान्वेषण में डूबे हैं. इससे बडी़ जड़ता और क्या होगी कि हम इस विष के साथ घृणा-द्वेष का विष भी फैला रहे हैं. मातृशक्ति का उत्पीड़न कर रहे हैं. काल के इस संकेत को अभी भी नहीं समझ पाये ?

आशा है, हमारा चैतन्य जड़ता को पुनः एकजुट होकर परास्त करेगा.

द्वारा : सुधीर अधीर

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दादी की परी
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