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" राह अपनी-अपनी " 💐💐 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

" राह अपनी-अपनी " 💐💐

  • 266
  • 16 Min Read

#शीर्षक
" राह अपनी-अपनी "
मनोहर बाबू का बेटा रमण फोन पर,
" पापा , प्रणाम मैं एक हफ्ते की छुट्टी ले कर घर आ रहा हूँ। इस बार घर का सौदा कर लेना है। मैंने सारी तैयारी कर रखी है"।
उसके प्रणाम के जवाब में उठे आशीर्वाद देने वाले हाँथ एक बारगी काँप गये। फिर व्यवस्थित हो कर बैठने से पहले ही थरथराहट भरी आवाज में पूछ ही लिया।
" रमण मेरे बारे में कुछ सोचा है,मैं कँहा रहूंगा?
रघुनाथ जब वह छह साल का था तभी से मेरी देखभाल कर रहा वह कहाँ जाएगा? "
"ठीक है पापा उसे आपने पढ़ा लिखा कर काम करने लायक बना दिया है वह अपना इन्तजाम कर लेगा "
" आप मेरे साथ चलेंगे 'शुभो' मेरी बिटिया आपकी पोती, तीन महीने की हो गयी है"

" प्रिया को वापस से ऑफिस ज्वाएन करनी है, तो आपके हमारे साथ रहने से उसे कंही बाहर क्रेच में डालने की जरूरत नहीं होगी"।
" ओ अच्छा तो यह बात है। उन्हें यह बात खटक गई। इसलिए मेरी इतनी पूछ हो रही है "।
उनकी पत्नी इस शुभदिन नातिन को देखने की आस मन में लिए हुए चली गयी।
उन्होंने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। फोन बंद कर निढ़ाल हो कुर्सी पर बैठ गये।
फिर तो बीती बातें एक-एक कर रील की तरह चलने लगी।
जब रमण जन्मा था, तो कैसे इस घर की निर्जीव दीवारें भी बोलने लगी थीं। पोते की किलकारियों ने कैसे उनकी अम्मा के मन में जीने के प्रति फिर से लालसा जगा दी थी। पत्नी रमा की ममता को मानों पूर्णता मिल गई थी।
दिन आगे चलते गये, पर रमा जहाँ थी वहीं रुकी रही।
कठिनाइयों से जूझते हुए उन्होंने रमण को पहले हाईस्कूल फिर इन्जीनियरिगं कालेज तक पँहुचाया था।
अपनी प्रतिभा के बल से उसे फिर अच्छी नौकरी भी मिल गई थी।
और फिर विदेश जाने का ऑफर, कम्पनी की तरफ से मिलने पर रमा की इच्छा ना रहने पर भी रमण के हौसलों की उड़ान देख उन्हें मजबूरन इजाजत दे देनी पड़ी थी।
और फिर तो रमण की नित नयी उड़ान को मानों पँख लग गए थे।
उसके विदेश जाने के कुछ ही महीनों बाद रमण का फोन आया था,
"माँ मैं साथ काम करने वाली प्रिया से शादी कर रहा हूँ अभी छुट्टी नहीं मिल रही है। घबराओ नहीं, छुट्टी मिलते ही हमदोनों आएगें।
उसके विदेश गमन को भी चुपचाप सहन कर जाने वाली पत्नी ने उनकी उपस्थिति के बगैर बेटे के विवाह के निर्णय को दिल पर ले लिया। तथा कुछ वर्षों के उपरांत ही जिस घर में दुल्हन बन कर आई थी उसी से विदा हो कर अनंत में लीन हो गई।
तब से ले कर आजतक लम्बा अन्तराल उन्होंने रघुनाथ के सहारे ही काटा है। इस बीच रघुनाथ ने बारहवीं पास कर कॉलेज में दाखिला ले लिया था। उसका दाखिला बाहर अच्छे कॉलेज में हो जाने पर भी वह बाहर जाने को तैयार नहीं हुआ। उसका कहना था यंही- कंही छोटी-मोटी नौकरी ढ़ूंढ़ कर आपकी सेवा करूगाँ।

मनोहर जी की बेटे रमण से बातचीत सिर्फ फोन तक ही सीमित रह गई थी। एक दिन फोन पर ही रमण ने बताया ,
"पापा आप दादा बन गये " ।

समय पंख लगा कर उड़ता रहा। यादों का सिलसिला अभी चल ही रहा था। कि बीच में रघुनाथ ने उनकी तन्द्रा तोड़ते हुए बोला ,
" उठिए बाबूजी, रमण भैया कब से आपके इन्तजार में बैठे हैं "।
रमण की ट्रेन पांच बजे की थी। राइट टाइम थी वह घर पंहुच हाँथ मुंह धो कर उनके उठने के इंतजार में मकान के खरीददार के साथ बैठा हुआ था।

" हाँ चलो" वे मन ही मन कुछ निश्चित करते हुए उठ खड़े हुए।
रमण के करीब जा उसके प्रणाम के जबाब में उसके कंधे थपथपा कर दृढ स्वर में बोले ,
" बेटे मुझे माफ करना मैं जीते जी जहाँ तुम्हारी अम्मा की आत्मा और उसकी खुशबू बसती है, उस घर को बेच नहीं सकता "।
तुम्हें तुम्हारा आकाश मुबारक और मुझे मेरी जमीन। मैं ऐसे राह चलते-चलते अन्तिम समय में भटकना नहीं चाहता ।

सीमा वर्मा /स्वरचित

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Anjani Kumar

Anjani Kumar 3 years ago

बहुत सुंदर कहानी

Anjani Kumar

Anjani Kumar 3 years ago

बहुत सुंदर कहानी

दादी की परी
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