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*बनी मैं दुल्हनिया*
इस माह यादों के पिटारे में कोई संस्मरण ही नहीं उभर रहा था। किंतु एक लिखा तो और भी याद आने लगे।
आजकल ये डेटिंग वेटिंग वाले सीरियल्स देखते देखते अपना ज़माना आँखों के सामने घटना दर घटना घूमने लगा। मैं जा पहुँची उस काल में जब मेरे लिए मैच की तलाश हो रही थी।
यूँ मैं अपने नाम के अनुरूप सीधी सरल सादगी पसन्द कन्या रही हूँ। दसवीं कक्षा से ही मेरे फेरों की तैयारियाँ होने लगी थी। मिलने मिलाने का नहीं किन्तु दिखाने का सिलसिला शुरू हो चुका था। उम्मीदवार आते गए और कहते गए,,,लड़की ज़रा सिंपल व सीरियस है, बाबा रे बड़ी पढ़ाकू है, लगती नहीं कि कॉलेज में पढ़ती है, थोड़ी दुबली है वगैरह वगैरह। अब देखो तो स्लिम का जमाना आ गया है। खैर छोड़ो, इसी ऊहापोह में मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली।
मेरे बहुत प्यारे ममेरे भाई थे डॉ विजय। उन्होंने अपने एक पुलिसवाले जिगरी दोस्त के सामने मेरा ज़िक्र किया। सब कुछ सुनकर वे साहब मुझसे मिले बिना ही शादी के लिए तैयार हो गए। प्रमाण के तौर पर मुझे एक पत्र भी भैया के हाथ भेज दिया।
परिवार में सब खुश किन्तु मैं कुछ भ्रमित व अचंभित थी। मैंने फ़ोन पर उन महाशय को कहा, " देखिए ये ज़िन्दगी का सवाल है। आपको मुझसे एक बार मिलना होगा। मैं इतनी सुंदर भी नहीं हूँ।" उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया यह कहकर कि मिलेंगे जरूर किंतु सगाई के बाद।
मेरी होने वाली सासू माँ को ये रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं था। विजय भैया ने उनके बेटे का लिखा प्रेमपत्र थमा दिया।
और इस तरह सारी गुत्थियाँ सुलझ गई।
कहते हैं न जोड़ियाँ स्वर्ग में ही बन जाती है। मेरे लिए यह सही साबित हुआ। आजकल हम देखते हैं कि लड़के वाह्य चकाचौंध की ओर भागते हैं। सीरत नहीं सूरत देखते हैं और बाद में पछताते हैं।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर