कहानीसामाजिक
#शीर्षकः
" यादें खट्टी- मीठी "
आज बरसों बाद सुनंदा आराम से पेड़ से पीठ टिका कर जमीन की मुलायम घास पर बैठी हुई सामने बहती नदी की धारा को निहार रही है।
उसके और सुधीर के विवाह को पच्चीस बरस पूरे हो गये हैं। सुधीर ने इस सुअवसर को बिग, ग्रैंड पार्टी में जा़या न कर शहर के शोर-शराबे से दूर फिर से उसी जगह पर बिताने ने की सोची है। जहाँ उन दोनों ने अपने जीवन की सुंदर शुरुआत की थी।
इस समय सुनंदा, घने बाग -बगीचे के बीच बने झोपड़ी नुमा खूबसूरत कॉटेज के परिसर में बैठी सुंदर दृश्य का अवलोकन कर रही है। जबकि सुधीर आवश्यक वस्तुओं तथा खाने-पीने की व्यवस्था देखने निकले हैं।
तभी उसकी नजर पेपर के न्यूज पर गयी। जिसने उसे अंदर तक बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है।
एक बार फिर उसने सिर झटक कर बुरी यादों को परे धकेलने की कोशिश की पर कहाँ कर पाई ?
वे यादें तो और भी बुरी तरह जोंक के समान उससे चिपक गई। सुनंदा ने लंबी सांस ले कर आंखें बंद कर लीं।
आंखें बंद करते ही उसके सामने एक धुंधली सी तस्वीर उभर आई।
" सुनंदा तब कोई तेरह साल की रही होगी, जब उसके दूर के रिश्ते के चाचा ने जबरदस्ती उसका फाएदा उठाया था"।
बड़े परिवार में माँ को इतनी फुर्सत कहाँ थी कि देखे,
" भरे-पूरे घर में बेटी वीरान हो रही है,
उफ्फ कैसी विवशता है ... "
सुनंदा को कमरे में जलते हुए पीले बल्व के समान उदासी में डूबती- उतराती देख मां सिसकती हुयी बोली ,
"अब जो हो गया, सो हो गया नये सिरे से सोच , बाहर किसी से मत बोलना "।
लेकिन सुनंदा सोच रही है,
" आखिर कैसे जीवित रह पाएगी वह इस घिनौने सच के साथ ?"
इस घटना के बाद तो वह बिल्कुल बदल गई। दिन रात कमरे में बन्द रहती। उसने बाहर निकलना ही छोड़ दिया था।
इधर मां इस घटना को दुर्घटना समझ कर उसे भूल जाने को प्रेरित करती रहती।
एवं उसे विवाह के लिए मानसिक रूप से तैयार करने में जुट गयी है। उनका मानना है, ब्याह के बाद लड़कियों की नयी जिंदगी शुरू होती है ।
लेकिन वसुधा झूठ की बुनियाद पर किसी भी प्रकार की नयी शुरुआत नहीं करना चाहती है ।
और इसके लिए पहले उसे अपने पैरों पर खड़े होना होगा। यह सोच वह दीन- दुनिया भूल कर जी- जान से पढ़ाई में जुट गई। उसकी जी -तोड़ मेहनत रंग लाई और वह शिक्षा के क्षेत्र में आगे-आगे, बहुत आगे बढ़ती गई। फिर एक दिन वह भी आया, जब अरसे बाद घर में खुशी आई।
सुनंदा ने एक साथ सात बैंकों की पी.ओ की परीक्षा क्लियर कर ली। उस दिन माँ ने पूरे मुहल्ले में मिठाई बँटवाई थी।
उसके ज्वॉएनिंग की तैयारियां घर में जोर- शोर से की जा रही थी।
इसी बीच माँ ने उसके आगरे वाले मामाजी से कह कर उसके रिश्ते की बात भी चला रखी है।
उसके ज्वॉएनिंग से करीब एक हफ्ते पहले मामाजी ने फोन कर मां को बताया था,
" सुधीर जल विभाग में पदस्थापित है और विवाह को राजी है" ।
"सिर्फ़ सुनंदा और सुधीर एक दूसरे को देख और आपस में समझ लें तो ही ठीक रहेगा "।
सुनंदा राजी हो गई पर इस शर्त के साथ,
" कि पहले वह अपनी नौकरी ज्वॉएन करेगी फिर सुधीर से मिलेगी " ।
मां बिचारी क्या करती उन्होंने हथियार डाल दिए हैं, यह सोच कर कि,
" आखिर सुनंदा की खुशहाल जिन्दगी का प्रश्न है? " वे किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करना चाहतीं।
फोन करके मामाजी को जानकारी दे दी एवं सुधीर से बात करके मिलने की तारीख तय करने को कह दिया।
अब सुनंदा मैनपुरी जाने की तैयारी करने लगी है। वहाँ ज्वॉएन करने के पंद्रह दिन बाद सुबह कार से आगरे जाने की बात तै हुई।
मां ने रात में ही सब सामान करीने से सूटकेस में सजा लिया था। उन्होंने एक भारी गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी भी रख ली थी।
उनके अनुसार सुनंदा को ,
"इसे ही पहन कर सुधीर से मिलने जाना चाहिए "।
सब तैयारी होने पर सुबह वे लोग मैनपुरी के लिए निकल पड़े थे।
वहां पहुँच कर पहले सुनंदा ने अपनी ज्वॉइनिगं दी।
जब अपने ऑफिस के प्रत्येक व्यक्ति से मिल कर वह संतुष्ट हो गई।
तभी वे लोग आगरे के लिए निकले ।
जहाँ मामा ने सारी तैयारी पहले से ही कर रखी है ।
शाम में सुनंदा और सुधीर दोनों का मिलना तय हुआ था।
बहरहाल शाम में...
वे दोनों बातें करते हुए धीरे-धीरे खुलने लगे हैं।
सांझ घिर आई है। खुले आसमान में चन्द्रमा झांकने लगा है। पूर्णिमा की रात है।
चांद को देखती हुयी सुनंदा बोली ,
"सुना है फुल मून के दिन झील में ज्वार आता है! " कह वह संकोच से नीचे देखने लगी ।
"मुझे आपसे कुछ कहना है" ।
उसकी सादगी से प्रभावित सुधीर ने कहा ,
"हाँ कहो "।
"यूं मैं अपना कड़वा सच नहींभी बताती , " लेकिन झूठ मुझे गंवारा नहीं, फिर मैं आपको किसी भी तरह धोखे में नहीं रखना चाहती हूँ सुधीर।
" आप अच्छी तरह से विचार कर ही मेरे साथ का फैसला लेना"।
फिर सुनंदा ने अपनी सारी आप बीती उसे सुना दी ।
सुधीर ने शांति से उसकी सारी बातों को सुन, मन ही मन उसकी साफगोई और जावाँजी की दाद देते हुए, उसके सुकोमल हांथों को अपने हाँथ में ले धीरे से उसके सिर को अपने कंधे पर टिका लिया है।
सुनंदा भी मुग्ध भाव से सुधीर को देख रही है ...अपलक ।
झील का पानी पिघली हुयी चांदी सा जगमगा उठा था।
तब तक सुधीर बाहर से लौट चुके हैं। उन्होंने विचारो में मग्न, आंखें बंद किए हुई सुनंदा की पीठ पर हौले हाँथ रखा।
सुनंदा चौंकती हुई संभल कर बैठ गई।
आज फिर वैसी ही पूर्णिमा की रात है। नीलगगन पर चाँद रोशनी बिखेर रहा है नीचे धरा पर सुनंदा अपने किस्मत पर रश्क कर रही है।
उसे सुधीर के रूप में बहुत समझदार जीवन साथी मिला है। जिसने न सिर्फ़ उनकी कमजोरियों के साथ उन्हें अपनाया है। वरन् उचित आदर-सम्मान दे कर सिरमौर भी बनाया है।
स्वरचित /सीमा वर्मा