कहानीलघुकथा
*करामाती नुस्खा*
दीनू दादा के मित्र बेचारे हैरान, " ये दीनू तो भई सबसे तंदुरस्त था। कसरती बदन, कभी दवाई के नाम एक गोली तक नहीं खाई। "
" हाँ हाँ, सूरज के साथ उठकर चल देता बगीचे में दंड बैठक लगाने। "
" अरे हाँ ! हम जब तक पहुँचते, उसकी दौड़ शुरू हो जाती। "
दोस्तों के साथ छोटा भाई रघु भी परेशान। डॉक्टर वैद्य सबका इलाज़ चल रहा है। किंतु वही ढाक के तीन पात। भाई सोचता, "काश ! भाभी जिंदा होती तो दादा के ये हाल नहीं होते। बेटे बहु को भी नौकरी की मज़बूरी थी। बेटा, पिता को भी साथ ले जा रहा था। किंतु वे पत्नी की बरसी किए बगैर अपना घर कैसे छोड़े। "
रघु की पत्नी भी दादा की सेवा में दिनरात लगी रहती। बेटे बहु के वीडियो कॉल का इंतज़ार दादा बेसब्री से करते। और पोते कान्हा का हँसता हुआ चेहरा देखकर तीन चार घण्टे सुकून से सो जाते। जिस दिन फोन नहीं आता, दादा की रात बैचेनी से कटती।
बेटे बहु आ रहे हैं, यह जानकर दादा स्वयं उठकर बैठे हैं। मित्र भी चमत्कार देखकर हैरान हैं। रघु दवाई फ़ल आदि खिलाकर दादा को थोड़ा आराम करने का कहता है। किन्तु दादा की नज़र दरवाज़े की ओर टिकी है।
ज्यों ही बच्चे आते हैं, बहु झट से कान्हा को दादा के पलँग पर लिटा देती है। कान्हा के नन्हें हाथों का स्पर्श पाकर दादा की आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़ते हैं। रघु भी भावुक हो जाता है, "देखा, पोते का करामाती स्पर्श। "
मित्र भी मज़ाक करते हैं, " अरे भई ! हमारे राम के हनुमान आ गए हैं, संजीवनी बूटी लेकर।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर