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राखी संस्मरण,,,
*मेरे काका भैया*
मैं ठेठ गाँव से हूँ। मेरे जन्म पर मेरी दादी खुशी से चहक उठी थी, " अब मेरा आँगन कुँवारा नहीं रहेगा। " मेरी कोई भुआ नहीं थी और मेरे पिता भी भुआ के प्यार से वंचित रहे। मेरे जमींदार दादा की कई मुँह बोली बहनें थीं। मेरी दादी ने बेटी के ब्याह की चाह तुलसी विवाह रचाकर की।
मेरे आने से मेरी षोडशी माँ को एक खिलौना ही मिल गया था। और मेरे काका को एक दोस्त। वो मुझ पर दिलो जान लुटाते थे। मैं जहॉं चाहू झूला बन्ध जाता था वैसे तो घर में एक स्थाई बड़ा सा सुंदर छड़ियों वाला लकड़ी का झूला था।
मैं पाँच साल की हो गई थी। और कोई बच्चा नहीं था। बस काका के काँधों पर बैठ खेतों पर जाना और नई नई ख्वाइशें करना, " चाँदी के ग्लास में दूध पियूंगी, दाल गरम चाहिए। " दादी झट कटोरी के नीचे अंगारा रख देती। अब सवाल उठा राखी बाँधने के लिए भाई चाहिए। दादी फ़िर बहलाने लगी, " अरे ! काका भैया हैं ना। "
बस फ़िर क्या, होने लगी तैयारियाँ। माँ ने बोर, कंगना, पोची, भुजबन्द, कंदोरा आदि पहनाकर लाल घाघरा चोली व धानी ओढ़नी से सजा दिया। काका भैया तो वैसे भी गले में चेन, कानों में मुरकी व गुलाबी साफ़ा पहनते थे। बस मैंने तिलक लगा पूरी पाँच राखियाँ बाँध दी।
दादा जी व पिताजी की बहन भी बनना पड़ता था। उनके हाथ भला कैसे सूने रहते, मेरे होते।
आरती उतारी तो थाल में कई खजूर के पत्ते थे। जी, मेरी राखी ऐसे मनती थी।
फ़िर काकी की गोद में दो बेटियाँ और मेरी एक बहन आई। घर में हम चार बहनें हो गईं। फ़िर हमारा भाई आया, एकदम कान्हा जैसा। लेकिन मेरे सबसे लाड़ले भाई मेरे काका भैया ही थे। वे इतने अच्छे थे कि पच्चीस वर्ष की आयु में भगवान के मन को भी भा गए। सच है जाने वाले चले जाते हैं, जाने वालों की याद भर आती है। वे कभी लौट कर नहीं आते।
स्वरचित
सरला मेहता
इंदौर।