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#शीर्षकः
" जाति-भेद " भाग -2
कल आपने पढ़ा... दो भिन्न-भिन्न जातियों के शाश्वत और अनुजा की मित्रता की परिणति प्रेम से आगे अब विवाह तक आ पंहुची है... आगे।
" अंक २ "
अनुजा अभी-अभी शाश्वत के साथ घूम कर घर लौटी है। वह जानती है। पापा इस रिश्ते के लिए कभी नहीं मानेगें।
लेकिन शाश्वत के आज की समझदारी भरे प्रस्ताव ने उसमें एक विचित्र स्फूर्ति का संचार कर दिया है।
घर आ अपने कमरे में कपड़े बदलती हुई वह बीते दिनों में चली गई,
" छोटे शहर से निकल कर मेडिकल कॉलेज के अंतिम वर्ष तक पंहुचने में न जाने कितने अच्छे बुरे वक्त का सामना शाश्वत की बदौलत ही करती आई "
अनुजा ...,
" सरल स्वभाव की मैं तब चेहरे और मुखौटे में कहाँ फर्क कर पाती थी "
जब घर वापस आती तब माँ भी मेरी इस आदत पर टोकती,
" हर किसी पर आँख मूंद कर विश्वास कर लेना अच्छी बात नहीं अनु "।
माँ को भी शाश्वत के साथ मेरा इस तरह खुला व्यवहार कहाँ सुहाता था? "।
" लड़की जात को कुछ मामलों में सचेत रहना चाहिए बेटा। जमाना बहुत खराब है "
" इस तरह खुले आम उसके पीछे भागना और उसकी बाते करती रहना , तुम्हारे पापा शायद ही यकीन करें " बोल कर चुप हो जाती।
कुछ नहीं कहते हुए भी तब वो कितना कुछ अनकहा कह जातीं।
" डोंट वरी माँ , " कह कर मैं भी चुप हो जाती थी "।
बाद में फोर्थ इयर आते-आते माँ को हमारे बीच चल रहे गुफ्तगू का अंदाजा तो हो ही गया था।
लेकिन पापा के मनमानी रवैये से डरते हुए भी ठंडी सांस खींचते हुए इतना ही कहतीं,
" भगवान् तुम्हारी हर इच्छा पूरी करें "।
आज वक्त आ गया है ,माँ को मनाने का सोचती हुई अनुजा मुस्कुरा पड़ी।
तभी माँ की स्नेह सिक्त आवाज सुन ,
" अनु तेरे पापा आ गये हैं ,बेटा आ जा मिल कर चाय पीते हैं " उसने कमरे का दरवाजा खोल दिया।
माँ किचेन में चाय बना रही है। अनुजा खूब सोच विचार कर फ्रेश हो चुकी है। आज खुल कर बात करनी होगी।
माँ को शाश्वत के घर तक आने का पता है। यों तो वो भी शाश्वत के मीठे- सहज स्वभाव को पसंद करती हैं।
लेकिन आज तो अनुजा खुलेआम उसके साथ बाजार घूम-फिर कर आई है। उसकी हिम्मत की वे दाद देती हैं,
" वाह अनु! आखिर है तो पापा की ही बिटिया , हठी और आत्मविश्वास से लबरेज "
वे मन ही मन उसके इस ढृढ़ निश्चय का अनुमान लगा कर इस सम्बंध में पति से बात कर उन्हें मना चुकी हैं।
आज उन्हें भी उसके और शाश्वत के साथ घूमने की खबर लग चुकी है।
जाहिर तौर पर माँ को लग रहा है। आज आर- पार की लड़ाई छिड़ कर रहेगी।
घर में एक विचित्र प्रकार की शांती छाई है। कंही यह शांती तूफान आने से पहले की तो नहीं है ?
तभी पीछे से आ कर अनुजा ने उनके गले में बांहे डाल दी और मनुहार करती कह उठी ,
" माँ समय आ गया ... तुम पापा को समझा कर मेरी इच्छा पूरी कर सकती हो"।
हर बार की तरह मां ने ठंडी आह भरी, और मुस्कुरा कर रह गई।
फिर दमदार आवाज में आती हुई हँसी को होठों में ही दबा कर बोलीं ,
" जितना मैं पापा को जानती हूँ,
" वो वाकई यकीन तो नहीं करेंगे , और तुम्हारी आज की इस हरकत के बाद तो और भी नहीं।"
सच में ,
" मैंने मम्मी-पापा, घर- समाज की जरा भी नहीं सोची " और यह खयाल आते ही गले में रुलाई फूट पड़ी।
उधर बरामदे में बैठे पापा की अधीरता, व्यग्रता... और उतावले पन से साफ जाहिर हो रहा है। कि वे सब कुछ जान चुके हैं।
मैं अंदर ही अंदर शर्म से गड़ गई ,
" क्या जबाब दूंगी पापा को?, कि आपके विश्वास को कायम न रख सकी, आपकी जाति- असमानता वाले थोथे, पुराने उलूल-जुलूल विचार को हम, यानी शाश्वत और मैं एक सिरे से खारिज करते हुए "
आपसे विवाह की इजाजत लेने की दुर्निवार इच्छा रखते हुए एक साथ भावी जीवन जीने के स्वप्न बुन रहे हैं "।
यों तो मुझसे कुछ बोलते नहीं बन रहा था पर घोर आश्चर्य कि मुझे उस वक्त डर बिल्कुल भी नहीं लग रहा था।
माँ के बनाए हुए चाय लिए मैं बरामदे में आ गई और टेबल पर रख कर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई। माँ भी तब तक नाश्ते की प्लेट में मिठाई सजा कर आ गई थी।
तभी पापा की गुरु गंभीर आवाज ,
" अनुजा बेटे तुमने जब निर्णय ले लिया है, डॉक्टर शाश्वत से विवाह करने का तो मैं कौन होता हूँ? तुम्हें रोकने वाला "।
" अफसोस तो इस बात का है तुमने मुझे गलत समझ लिया , हाँ मैं अन्तर्रजातीए विवाह के सख्त खिलाफ था "।
" पर यह दो पढ़े-लिखे, समझदार इंसानों का आपस में समझ-बूझ कर लिया गया फैसला है "
जिसमें ही शायद हम सबों का बड़ा हित निहित हो ऐसा सोच मैंने और शाश्वत के पिता , जिनसे मैं आज तुम्हारी माँ के कहने पर मिलने गया था "।
"अगले लगन में तुम्हारा विवाह पक्का कर आया हूँ "।
मेरी आक्रोश एक झटके से छंट गया और रुलाई गले में ही घुट कर रह गई ।
पापा बोलते जा रहे थे। मैं सुन रही थी।
यही सुनना तो मेरी चिर आकांक्षा रही है। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था ये वही पापा हैं जिन्हें मैं जानती थी।
फिर माँ को देखा वो बेतहाशा मुस्कुराए जा रही थीं, उनकी चमकदार आंखें मानों कह रही हों ,
" क्यों मेरी बिल्लो रानी कैसी रही " ?।
और मैं सपनों के नील गगन में शाश्वत के साथ निर्द्वन्द्व , निश्छल भाव से खुशी के सागर में गोते लगा रही थी।
इति श्री 💐💐
सीमा वर्मा /स्वरचित
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