कवितालयबद्ध कविता
खडे़ हुए हैं आज हम,
कोरोना के साये में
एक ऐसे मोड़ पे
मृत्यु की आहट सुनते
जीवन के इस छोर पे
जाते हैं इस मोड़ से
कुछ कदम, कुछ डगर
देखते हैं, कहाँ-कहाँ,
कैसे-कैसे, किधर-किधर
यदि मास्क बिना घर से निकले
और कोरोना की फिसलन पे
पाँव फिसले
तो क्वारंटीन, आइसोलेशन,
या अल्टीमेट आइसोलेशन,
जीवन की सबसे अनवांटेड
सिच्वेशन की ओर
और अगर रहे अनुशासित,
हिरोशिमा, नागासाकी की
त्रासदी को झेलते,
फिर उसको पीछे ढकेलते,
फिर से जीवन का खेल खेलते
जापान की तरह मर्यादित
तो फिर एक मजबूर नहीं,
मजबूत नेशन की ओर
सारी शक्ति को एकजुट कर,
कंधे से कंधा जुड़-जुड़कर
समृद्धि की राह के हर दोराहे पर
सही दिशा में मुड़-मुड़कर
रच सकते हैं फिर से
एक नया इतिहास
खेतों-खलिहानों से
निकला सच्चा एक विकास
और अगर त्रासदी में भी,
अस्तित्व को ललकारती
इस विपत्ति में भी
कोरोना के साथ-साथ,
अनजाने ही अनायास
पलती जाती इस नफरत से,
सदियों से हमको खोखला सा
कर रही इस फितरत से
यूँ ही इंसान बँटा रहा,
इंसान क्या,हम सबके हाथों
यूँ ही भगवान बँटा रहा
भाई, भाई का दुश्मन बन
एक दूजे से कटा रहा
उन्मादों के दोराहों पर आ-आकर,
कदमों को यूँ ही भटकाकर
ध्यान सभी का, लक्ष्य से
यूँ हटा रहा
तो सर्वनाश को कोई
रोक नहीं सकता,
बेखटके, बेरोक-टोक सी विचरती
इधर-उधर स्वच्छंद बिखरती
इस मृत्यु को कोई टोक नहीं सकता
द्वारा : सुधीर अधीर