कविताअतुकांत कविता
सिले होंठ
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क्यों न उस वक्त से गिला हो
जिसने होंठ को सिला हो
जी चाहता है
तुम्हारी भी आवाज सुनुँ
तुम्हारे हृदय में उमड़ते अनुराग
मेरी आँखों में सवाल बनकर
उभर आए हैं |
मैं चाहता हूँ
तुझसे
उसका जबाब सुनना |
पर रोक देते हैं
ये तुम्हारे सिले होंठ
दिल से उठती नमीं को
कहाँ दिल तक पहुँचने देते हैं
बँद होंठ
कहाँ सिसकने देते हैं
रूक जाती हैं सिसकियाँ राह में
और समा जाती हैं
दिल के किसी अंधेरे कोने मेंं
तपती आँच में
बस शोले बनकर
दिल में दहकने के लिए
लावा बनकर
आँखों में लहकने के लिए.
उस नमीं का अहसास
तुम्हारी चहचहाहट
सबकुछ जैसे खो गयी
क्यों न वक्त से गिला हो
हृदय को बेधते बँधन देख
मेरी आँखें रो गयीं |
कृष्ण तवक्या सिंह
15.07.2021