कहानीप्रेरणादायक
#शीर्षक
" गुरु -महिमा "
मैं ब्रजेश माथुर आज अपनी कहानी आपको सुनाने जा रहा हूँ। जिसमें प्रत्यक्ष रूप में तो गुरु महिमा गान नहीं करूंगा। परंतु अंत होते-होते आप स्वंय जान जाएगें कि एक १४ वर्ष की कच्ची उम्र में लड़खड़ाने पर उतारु किशोर के पाँव को मात्र 'चार वाक्य 'से किस प्रकार साध कर उसे प्रगति के मार्ग पर अग्रसित किया जा सकता है।
खैर आगे बढ़ता हूँ।
उच्च सरकारी पदाधिकारी की एकमात्र संतान मैं, घर के पास ही लोकल स्कूल में जा ,अत्यधिक लाड़-दुलार से बिगड़ गया था।
मैं अपने पिता की बड़ी सरकारी नौकरी के धौंस जमा कर अन्य विद्यार्थियों को प्रभावित करने की कोशिश में उदण्डता की सीमा को छूने लगा था।
तब परेशान हो मेरे पिताजी ने शहर से दूर प्रकृति के सुरम्य आंगन में बने उस आवासीय विधालय में मेरा नामांकन करा दिया था।
उनके लगता था घर से दूर जा कर मैं शायद कुछ सुधर जाऊंगा ?
उनके इस विश्वास का बहुत बड़ा कारण उस स्कूल के प्रधानाचार्य 'बाबू हरिहरनाथ जी' थे। जो अपने कड़े अनुशासन से हॉस्टल में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखने के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे।
बहरहाल पिताजी के इस कृत्त्तव्य ने उस वक्त मुझे और भी विद्रोही बना दिया था। अक्सर सोचता,
"आखिर उन्होंने क्यों मुझे माँ से दूर कर दिया "
घर से निकलते वक्त मन में यह दुर्भावना ले कर चला था,
" कि बस अब इस पार या उस पार"।
खैर यहाँ आ कर प्रारंभ में तो बिल्कुल ही मन उचटा सा रहता पर फिर मरता क्या ना करता?।
मैंने जान बूझकर चुन-चुन कर कुछ भैय्या जी टाइप लड़कों से दोस्ती गांठ ली। कुछ इस ख्याल से कि यह सब देख बड़े मास्टरजी क्रोधित हो कर मुझे स्कूल से निकाल देगें और मैं खुशी-खुशी घर वापस हो लूंगा।
बड़े मास्टर जी हमारे गणित के सर होने के साथ ही हॉस्टल के वार्डन भी थे। रोज होने वाले पीटी क्लास के समय वे स्कूल की इमारत पर चढ़ जाते।
और वंही से वे एक-एक लड़के पर नजर रख उनकी कमान कसा करते।
फिर भी मैं जरा सी परवाह नहीं करता। जहाँ अन्य लड़कों की सिट्टि-पिट्टी उन्हें देखते ही गुम हो जाती। वहाँ मैं नीडर, निर्भीक हो सीधे-सीधे उनकी आंखों में देखता।
परंतु ईश्वर की कृपा और मेरे गुरु की सद् इच्छा से ही आज मैं आ.ए. एस बन इस उच्च पद पर विराजमान हो पाया हूँ।
अब मैं आपको यह बताता हूँ। वो चार वाक्य जिसने मेरी जीवन दिशा पलट कर रख दी। किन हालात में मैं उनसे प्रभावित हुआ?।
हुआ यों कि उस दिन शाम से ही बारिश हो रही थी। अन्य सब जहाँ उसका आनंद उठा रहे थे। मैं कमरे में बिस्तर पर आराम से पैर पर पैर चढ़ा कर लेटा हुआ जासूसी उपन्यास पढ़ रहा था। मेरी टेबल पर तमाम प्रकार के हँसी-मजाक वाले किताब बिखरे हुए थे।
उसी समय बड़े मास्टर जी बिना आवाज किए कमरे में प्रकट हुए।
वे बहुत अधिक बोलते तो कभी नहीं थे। लिहाजा उस दिन भी थोड़ी देर मौन रह कर मुझे देखते रहे।
फिर मेरे सिर पर हाँथ फेरते हुए अपनी स्नेह सिक्त वाणी से जो कहे। वह आज भी गूंजती है मेरे कानों में ,
" माफ करना ब्रजेश ,
मैं किसी को उसके कपड़ों, भोजन , भाषा और उसकी जाति-धर्म से नहीं पहचानता मेरे बच्चे"
"बल्कि उस इंसान को जानना चाहता हूँ जो बखूबी हर किसी के अंदर रहता है "।
"तुम जो किताबें पढ़ रहे हो उन्हें अवश्य पढ़ो क्योंकि वे पढ़ने के लिए ही तो लिखी गई हैं "
कह कर बिखरी किताबें प्रेम से सहेज अपने साथ लाई हुयी जयशंकर प्रसाद ,शेक्सपीयर ,सुमित्रानंदन तथा अन्य भी किताबें रख दी ,
" ये कुछ पुस्तकें लाया हूँ जिनमें जीवन के गूढार्थ छिपे हैं कभी मन करे तो अवश्य देखना " कह कर मुड़ के वापस चले गये।
उनकी ओजपूर्ण वाणी का असर था या कुछ और ?
मैं पूर्ण रूप से बदल चुका था। बिगड़ैल , अड़ियल एवं जिद्दी छात्र से ऐसे बेटे और छात्र के रूप में कि जिस पर कोई भी गर्व महसूस कर सके।
स्वरचित / सीमा वर्मा