कहानीलघुकथा
#शीर्षक
" वक्त के अनुसार "
इन दिनों रमा जी गौर कर रही हैं। उनकी सदा से खुश रहने वाली प्यारी सी सलोनी बहू स्मिता चिड़चिड़ी रहने लगी है।
उसके गोरे- गुलाबी मुखड़े पर पीली आभा छाई रहती है ।
पहले वे दोनों कितनी बाते किया करती थीं। फिर साथ में मिल कर बागवानी भी किया करती।
पूरे मोहल्ले में सास -बहू की लाजवाब जोड़ी और अनूठी बैठती केमिस्ट्री के चर्चे आम थे। पर आजकल ना जाने किसकी नजर लग गई है। कि सारा तालमेल ही बिखर सा गया है। स्मिता हरदम अपने कमरे में ही रहती है। आज जरूर पूछूँगी यह सोचती हुई वह रमा के कमरे में प्रवेश कर गई ,
" क्या बात है स्मिता आजकल तुम कुछ उदास और थकी - थकी रहती हो ?"
" कुछ तो नहीं बस वैसे ही" ।
" सुधीर से कुछ अनबन हो गई है क्या ?"
" नही तो माँ... , स्मिता आवेश में कुछ बोलने ही जा रही थी पर फिर बहुत मुश्किल से रोक लिया।"
कैसे बताए वह ,
" कि महीने के उन दिनों में आजकल उसे कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। "
" दिल कितना बुझा- बुझा और आशंकाओं से घिरा रहता है "।
अपनी मां रहती तो बिन बताए ही सब समझ जाती ।
इधर रमा सोच रही है,
" बहू ४७ की होने जा रही है बच्चे भी बड़े हो गए हैं ... फिर ? यही तो इसके स्वाधीनता के दिन हैं।"
अचानक रमा जैसे नींद से जागी ,
" ओफ्फो... इस पर मेरा ध्यान पहले क्यों नहीं गया। फिर स्मामिता ने भी मुझे कुछ नहीं बताया । "
वे खुद ही बड़बड़ा उठी और अगले ही दिन उसे ले डॉक्टर के यहाँ जा पहुंची ।
शाम में सुधीर के घर आने पर बोलीं ,
" बेटा , स्मिता को इन दिनो डॉक्टर के परामर्श अनुसार प्रोटीनस और आयरन युक्त डॉएट, मच्छी -अंडे की जरुरत है अब ये सब नियम से आया करेगें "।
अब चौंकने की बारी सुधीर की है ,
" क्या कह रहीं हैं आप याद करिए स्मिता को नौनवेज कितना पसंद था जब वह शादी कर के नई -नई आई थी।"
" हाँ - हाँ सब याद है मुझे तभी तो कह रही हूँ , उस वक्त इसने अपनी जिद्द छोड़ी थी। आज मैं अपनी जिद्द छोड़ रही हूँ " ।
कह कर मुस्कुराती हुई स्मिता की ओर प्यार से देखने लगीं। स्मिता भी मन ही मन सोच रही है ,
" मुझे एक नहीं दो-दो माँ का प्यार मिला है कितनी खुशनसीब हूँ मैं। "
स्वरचित / सीमा वर्मा