कविताअतुकांत कवितालयबद्ध कविता
पंछी निराले रंगीले,
उड़ चले हवा में पंख फैलाकर।
मंजिल तक जाना था उनका,
नहीं हटे किसी से डर कर।
हौसला था मन में जाना है वहां,
अपना कर्तव्य छोड़ा नहीं संघर्ष करते रहे।
पंख टूटने से डरे नहीं, हवाओं से बाते किए,
सोच बदल दी अपनी, मन में उजाला लाते रहे।
नहीं भूला अपना पथ, रुक रुककर उड़ता रहा,
काया पर से द भी आया परिश्रम करके।
रुके नहीं वो डटे रहे, पोंछ पोंछ कर,
जो बना लिया अपना लक्ष्य, करेंगे करके।
क्लेश आया पग- पग पर राहों में,
सहन करके आगे बढ़े, आत्मबल जगा लिए।
निश्चय किया कार्य करना है, कुछ ही समय में,
बदन पे कांटे चुभते गए, वो सहते गए वहां के लिए।
नहीं छोड़ा वो अपना अटल विचार मस्तिष्क में,
अपना गति तेज किए, पीछे मुड़ कर नहीं देखें।
जो जमीं पर हंसने वाले कीड़े हंस रहे थे,
वो भी आए मुस्काकर, उसके पास उसके कर्तव्य देखें।
लेखक- मनोज कुमार
गलती नही है मनोज जी विषय से हटी हुई लगी मुझे थोड़ा... हौसला और स्वाभिमान एक दूसरे के पूरक हो सकते है परंतु आपका स्वाभिमान रचना में खुल कर प्रदशित नही हो पा रहा..!
मनोज जी आपकी रचना बेहद उम्दा है परंतु मुझे ये थोड़ा विषय के अनुरूप नही लगी ..
😊 तब इसमें क्या गलती है । कृपा बताओ न