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सन्समरण - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

लेखआलेख

सन्समरण

  • 480
  • 13 Min Read

संस्मरण,,,
पाक विशेषज्ञा मेरी माँ*

लॉकडाउन के कारण सब्जियां मिल नहीं रही हैं। रोज की किल्लत कि क्या बनाए। पोता जिद करने लगा कि रोज रोज दाल नहीं खाऊंगा। घर में प्याज का ढेर देख अपना गाँव व गाँव में रहने वाली मेरी पाक विशेषज्ञा माँ याद आ गई।
गांव के जीवन के प्रति सब आकृष्ट होते हैं। नहीं जानते कि ढोल दूर से ही सुहावने लगते हैं। एक जमाने में वहॉं कुछ मौसमी सब्जियाँ ही उपलब्ध होती थी। क्योंकि ये घर के बाड़े में ही लगाई जाती थी। कुए से पानी लाकर कौन सब्जियाँ उगाएगा भला। अतः विभिन्न दालें ही तरह तरह से बनाते रहो हाँ प्याज़ के ढेर हर घर में लगे रहते थे। माँ ठहरी शहर की, सब्जियों के बिना उनको थाली सूनी लगती। नौ वर्षीय बालिका वधु ससुराल आई थी। कुछ सीखकर नहीं आई थीं। बस अपनी सृजनशिलता के दम पर रसोई महकाने लगी। और सबके दिलों में अपनी जगह बना ली।
प्याज़ को नए नए तरीकों से बनाने लगी। कभी सादी सूखी सब्जी तो कभी अजवाइन हींग का तड़का मार उसमें बेसन बुरक देती। कभी प्याज़ का ढीला बेसन जिसे ज्वार की रोटी से खाने का मजा ही मत पूछो। कभी प्याज़ में थोड़ा ज्यादा तेल डाल चौड़ी कढ़ाई में बना लेती। उसको फैलाकर उसमें बेसन के पकौड़े थोड़ी थोड़ी दूरी पर छोड़ पका लेती। कभी छोटेछोटे प्याज़ छाँटकर बेसन का मसाला भर भरवाँ प्याज़ बना देती। हाँ, बेसन के चीले बना, उन्हें काटकर दही डाल सब्जी बना देती। उस पर ताज़े मक्खन की तरी का कहना। उनकी कड़ी भी एक पकवान होती। मैथीदाना हींग कुटा अदरक व मीठी नीम व असली घी से बनी खुशबू पूरे घर में फैल जाती। उसके साथ गुड़ का दलिया घी डला, बस खाते ही जाओ। पकोड़े तो तरह तरह के,,,दादी के पान से, अजवाइन की पत्तियों से, ताज़ी लटकती गिलकी से। सब में बारीक कटा प्याज़ व तुलसी क्यारे में गड़ा अदरक पीस डालना नहीं भूलती।
गाँव की छोटी छोटी मूँग दाल का स्वाद ही अलग है। रात को गलाती, सवेरे छिलके निकाल हींग जीरा बारीक प्याज़ काट बघार देती। इसे रसेदार नहीं सूखी ही रखती। चूल्हे के सामने अंगारों पर धीरे धीरे पकाती। उसे हम धोया दाल कहते थे और दूध के बने घी में तर टापुओं(कुछ मोटी रोटी) के साथ खाते। यह दाल सफ़र व पिकनिक पर भी ले जाते।
धीरे धीरे वो सेव चूड़ा
पारे आदि नमकीन भी खूब बनाने लगी। घर में दूध दही की कमी नहीं, घी के तो पीपे भरे रहते। बस मेरी नानी से सीखकर आती और गुलाबजामन, जलेबी, श्रीखण्ड आदि बनाती रहती। उनके हाथ की बेसन चक्की तो बस कलाकन्द को भी मात देती थी। संक्रांति पर देसी तिल धोकर सफ़ेद झक कर, कूट कर बर्फी बनाती। उसमें मावा व थोड़ा बेसन सेककर डालती। जो खाता गुना ग्वालियर की गज़क भूल जाता। दिवाली पर तो पूरी महराजिन बन गुजिए आदि पीपे भर भर बनाती थी।
मुझे यादों में खोई देख पोता पूछने लगा," कहाँ खो गई दादी ?"
" मैं सोच रही हूँ तुम्हारे लिए प्याज की एक नई तरह की सब्जी बनाने का। ऐसी सब्जी जो तुम्हारे पापा की नानी बनाया करती थी। "
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 3 years ago

बहुत अच्छा संस्मरण..!

समीक्षा
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