कहानीलघुकथा
#शीर्षकः
" महज बता रही हूँ"
प्रिय बेटे
सदा खुश रहो। आज तुम फिर मेरी सालगिरह भूल गए?। नाराज नहीं हो रही।
जानती हूँ बड़े अफसर हो गए हो अनेकानेक व्यस्तता रहती होगी। आज सुबह ही तुम्हारी हेमा दी का फोन आया था। नींद से बोझिल आवाज थी उसकी मेरा कितना मन था उससे विस्तार से बातें करने का पर... उसकी आवाज सुन कर ही हौसला ढ़ह गया,
"ओ हाँ माँ हैप्पी बर्थडे ,क्या कर रही हो आज, मतलब कैसे सेलिब्रेट कर रही हो?"
"कुछ नहीं ,कैसे भी नहीं। तुम बताओ?"
यह तो महज संजोग ही है कि श्रेया की बर्थ डे भी आज ही है,
"श्रेया ने कैसे बिताया आज का दिन?"
व्हाट्सएप पर टप...टप...टप... एक साथ दर्जनों फोटो शेयर करने से मेरे कान घनघना गये"।
"थोड़ा बात कराती बेटा उससे, बहुत मन कर रहा था।
नहीं माँ वो सो गई है , इस समय मालूम है रात के पौने ग्यारह बज रहे हैं। सबेरे कर लेना "।
उसकी उनींदी आवाज सुन कर मैं क्या बोलती बेटा?"
कि मालूम है, मुझे खूब मालूम है। कैसे हर बार जी सालता है वर्ष के इस खास एक दिन। और कैसे मन खूंटे से बंधी बछिया सा उखड़ बार-बार पीछे भागता है?।
खैर... इन दिनों तुम्हारे पापा के जाने के बाद से मैंने मन में एक चुप्पी सी साध ली है, जिसे कुछ भी कोंच कर नहीं जाता।उस दिन बगल वाले घर की नन्दिता छोटे से लड्डू-गोपाल मेरी गोद में डाल कर बोल रही थी,
"इन्हें ले आंटी जी इन्हें संभालें अब यही आपको संभालेंगे"। अब ऐसा भी कंही होता है बेटा?"।
कुछ दिन तो मन रिझाने को अच्छा लगा। लेकिन अब फिर एक विचित्र सा अवसाद मेरे सूनेपन को अपनी मनहूसियत से भरने लगा है।
बेटा लेकिन शायद इन्हीं 'कान्हा जी' की कृपा मुझ पर बरसी है।
"तुम्हें वो ' वासंती मौसी' की याद है?
हाँ जिनके आने पर तुम दोनों भाई-बहन कितने खुश होते थे। आज वे ही... मुझे मंदिर की सीढ़ियों पर मिली थीं"।
उन्होंने मेरे हाँथ कस कर थाम लिए , जिसके साथ ही वही पहले वाली गर्मी मेरे दिल-दिमाग में उतरने लगी है। उन्हें मैं घर लाना चाह रही थी। पर वे थोड़ी जल्दी में थीं,
"अभी नहीं सुधा, तुम्हारे शहर के ही बालिका सुधार गृह के जलसे में आई हूँ।
उसके बाद मिलते हैं"।
"और हाँ तुम क्या कर रही हो आजकल?
वे संभवतः मेरे रँग उड़े ,रूखे और पीले पड़ गए चेहरे को भांप गई थीं।
"इस सुधार गृह की संचालिका का पद रिक्त होने वाला है।
तुम ज्वाएन करोगी? कर लेती तो अच्छा था"।
बेटे मेरे उदास मन पर वासंती मौसी का पीला रंग चढ़ने लगा है।
कान्हा जी की सेवा तो रोज ही करती हूँ , आज गोपी ,गोपिकाओं की सेवा करने का मोह मैं नहीं तज पा रही हूँ।
तुमसे पूछ नहीं रही, महज बता रही हूँ। मैंने उन्हें हामी भर दी है।
तुम्हारी माँ
स्वरचित /सीमा वर्मा