कवितालयबद्ध कविता
जाग-जाग री ।
कौन तुझे अबला कहता है
शक्त, सबल हे नारी,
तू खुद को पहचान, जाग
कर सिंह की पुनः सवारी।
घूम रहे नर-व्याल गली में
मगर नहीं अब डरना,
कर डटकर संहार खलों का
अश्रु नयन मत भरना।
जाग-जाग हे जाग देवियों
सीख युद्ध के कौशल,
अंचल में तो स्नेह मगर
हो तीव्र खड्ग भी करतल।
आत्म सुरक्षा हेतु देवियों
कर कृपाण अब धारण,
दुर्दिन, पीड़ा व अभाव के
तू खुद भी है कारण।
आत्मसमर्पण पाप , पुण्य
है मूल्यों पर लड़ जाना,
आत्म सुरक्षा हेतु राह में
पर्वत - सा अड़ जाना।
मिला किसे सम्मान धरा पर
कायरता से, डर से,
इस धानी चूनर के बदले
कफन बाँध अब सर से।
अनिल मिश्र प्रहरी ।