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हमसफर 💐💐 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

हमसफर 💐💐

  • 209
  • 12 Min Read

#शीर्षक
" हमसफर "

जब जीवनपथ पर दो राही सदैव एक दूसरे के साथ निभाने को तत्पर रहते हुए अग्ररसित हों...
वे ही सच्चे हमसफर हैं ... जिस तरह से सुखदा और तुलसी।
सुबह से ही विधवाश्रम का दरवाजा बन्द है लोहे के दरवाजे को जोर से खींच कर उनमें पत्थर अटका दिए गए हैं ।
जिसकी एक ओर तुलसी और दूसरी तरफ सुखदा दिन ढ़लने और अंधकार होने का इन्तजार बेसब्री से कर रही हैं ।
३७ वर्षीय निःसन्तान सुखदा अभी पिछले साल ही आश्रम आई है ।
तुलसी ६-७ वर्ष की अनाथ-असहाय बच्ची ।
कोई उसे गोपी बुलाता तो कोई गोपिका , कोई कहे राधा तो कोई राधिका कहने का अर्थ है कि सम्बोधन अलग-अलग लेकिन मंशा कमोवेश एक सी ,
" कली को फूल बनने के पहले ही मसल दिया जाए " ।
वह मंदिर में साफ-सफाई कर मिले हुए प्रसाद पर जीवनयापन करती हुयी शाम में पुजारी के साथ भजन- कीर्तन में लय भी साधती है ।
सुखदा उसे नन्हे मीठे गले से सुर साधते देख बहुत खुश होती है।
वह रोज ही शाम में वहाँ आ बैठती और नन्ही तुलसी को निहारती नहीं थकती ।
यों कि सुखदा के चेहरे पर हर वक्त उदासी की छाप रहती है सुख की स्मृतियों के नाम पर जो कुछ उसके पास है वह सब बीते दिनों की है ।
अब तो उसका वर्तमान और भविष्य दोनों एक जैसे हैं ।
एक दिन तुलसी सुखदा की बन्द हथेलियों को जबरदस्ती खोल मिले हुए प्रसाद को डाल कर बोली ,
" लो ना मासी थोड़ा तुम्भी खाओ"
" ओ नहीं मेरी इच्छा नहीं है मैं नहीं खाऊँगी "
" क्यों मासी मीठा अच्छा नहीं लगता "? फिर उसके गले में लटक मुंह में मिश्री के दाने डाल दिए ।
विवश सुखदा उसके प्यार की मिठास ठुकरा नहीं पाई ,
उसकी ममता प्यासी है ।
सुखदा अभी तक अपनी बिखरी हुई परिस्थितियों से समझौता नहीं कर पाई है ।
उसका विश्वास जीवन में मिले झंझावातों से टकराकर टूटने में नहीं वरन् उनको झेलने में है ।
अब उसे तुलसी के रूप में एक सहारा मिल गया है।
उसने तुलसी को अक्षरज्ञान देना आरम्भ किया जमीन पर ही कोएले की जली लकड़ी से उसे पढ़ाने लगी ।
वे दोनों खूब बातें करती हंसती है ।
दोनों को ही एक दूसरे का सहारा मिला है

दूरदृष्टि वाली सुखदा अब किसी भी हाल में भाग्य हीना तुलसी को अपने से अलग नहीं होने देना चाहती ।
वह जानती है उससे जुदा होकर तुलसी तुरंत शिकार बना ली जाएगी ।
एक दिन उसने तुलसी से पूछ ही लिया ,
" सुन तुलसी तुझे मुझ पर विश्वास है ना " ?
" हाँ मासी "
" फिर हम यहाँ से दूर कंही और चलें "
तुलसी को और क्या चाहिए ?
अपने अच्छे दिनों में जमा की गई पूंजी साथ में लिए सुखदा कदम बढ़ाने को तैयार है।
धीरे -धीरे शाम गहरा कर जब रात में ढ़ल गई ।
आश्रम के पिछले दरवाजे से निकल एक परछाईं चुपचाप खड़ी दूसरी के साथ भविष्य संवारने चल दी है ।
दूर गगन में पूर्णिमा का चांद मुस्कुरा रहा है ।

सीमावर्मा ©®

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Roohi Shrivastava

Roohi Shrivastava 3 years ago

Bahut khub

Roohi Shrivastava

Roohi Shrivastava 3 years ago

Bahut khub

Shekhar Verma

Shekhar Verma 3 years ago

lajawab kahani

सीमा वर्मा3 years ago

जी हार्दिक धन्यवाद

Anjani Kumar

Anjani Kumar 3 years ago

बहुत सुंदर

सीमा वर्मा3 years ago

जी हार्दिक धन्यवाद

दादी की परी
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