कविताअतुकांत कविता
न जाने कहाँ ले जाती ये नइया
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मुझे तुम्हारी तारीफ ही नहीं |
तुम्हारा साथ भी चाहिए |
जिन शब्दों की,जिन भावनाओं की
तुमने तारीफ की,
उसे जमीन पर उतारने के लिए |
अभी जो शब्द बनकर सिमटा है
किताब के पन्नों में |
उसे बाहर निकालना चाहता हूँ |
जो गड़े हैं स्याही की टेढ़ी मेढ़ी आकृतियों में
उसे जमीन पर बिछाना चाहता हूँ |
पर यह कहाँ सम्भव हो पाएगा
बिन तुम्हारे |
ऐसा नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की
अकेले ही सबकुछ करने की
पर हो नहीं पाया |
मन में उठते इन शब्दों के तूफानों के बीच
मैं कभी सो नहीं पाया |
कोई कश्ती नहीं, न कोई खेवईया
पता न चले डोलती, उतराती
कहाँ ले जाती ये नइया |
कृष्ण तवक्या सिंह
20.05.2021.