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वो बंद आखिरी मकान - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

वो बंद आखिरी मकान

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  • 13 Min Read

शहर की उस उजडी़ सी
आखिरी बस्ती की,
आबादी को तरसती सी 
उस आखिरी गली का 
वो  बंद आखिरी मकान
जिंदगी की हर हलचल से
रहता था बिल्कुल अनजान
पडा़ हुआ बिल्कुल सुनसान
कोई भी जिंदा जिंदगी
उससे बस दूर भागती थी
पास में था जिंदगी का 
आखिरी असली मुकाम
जीवन का अंतिम पूर्ण विराम
आखिरी मंजिल श्मशान

उसका मालिक था कुछ परेशान
खुद भी रहने से डरता था
फिर कौन रहता उसमें आकर,
कौन था ऐसा शक्तिमान
जो  बनकर एक खरीददार 
या फिर एक किरायेदार
कौन ऐसा साहसी था
जिसके कदमों से बन जाता
घर सा जीता-जागता 
वह सुनसान मकान

उसका पैसा डूब रहा था
यह देखकर वह टूट रहा था
उसका भाग्य उसको
उसकी ही आँखों के सामने
खुलेआम सुबह-शाम 
यूँ लूट रहा था

तभी शहर में आया एक 
एक फटेहाल सा नौजवान
मजबूरी थी उसकी वही
रोटी, कपडा़ और मकान
कैसे भी जुटा लेता वो
दो वक्त कुछ रूखा-सूखा,
शरीर पर चिपटे से चिथडे़
कपडे़ का एक भरम सा 
बनाये रखते थे
बेशरम, नंगा होने से
बचाये रखते थे
मगर सिर छिपाने को कोई छत
दे नहीं सकी थी उसको
रहने का एक ठिकाना
फुटपाथ भी उस 
बिन बुलाये से मेहमान को
फटकारते, दुत्कारते से लगते थे
बेशरम, मनहूस जैसे नामों से
पुकारते से लगते थे

और फिर उस मजबूर 
मकान-मालिक ने
खोजा उसकी
आपदा में एक अवसर
दे दिया मुफ्त में रहने का आफर
इसे मिलेगा एक बसेरा
और मकान से छँट जायेगा
मनहूसियत का यह अँधेरा

मगर उसे सब लोगों ने
बतला दिया 
दरियादिली का असली राज
होने लगा था उसको भी अब
डर का कुछ-कुछ अहसास

" जान है तो जहान है
एक दूजे की पहचान हैं
पहले एक बार सच को 
खुद ही जान लेते हैं
जिंदगी के इस चेहरे को
पहले पहचान लेते हैं "

चल पडा़ वो मन ही मन 
कँपकँपाता सा
हनुमान चालीसा की चौपाई
मन ही मन दोहराता सा

मकान तो पूरा बँगला था
पर जिंदगी के नाम पर
बिल्कुल कँगला सा
गेट पर था मकडी़ के 
जालों का साया,
रोगन गँवाया और 
पूरा जंग खाया
खोलते ही एक
डरावने से अंदाज में
बार-बार वो चरमराया
फिर भी उसने भीतर 
पाँव रखकर जैसे
जिंदगी का नया द्वार सा
खटखटाया

बायीं ओर घास का एक लाॅन था
उसमें एक बूढा़, 
जग से कुछ अनजान सा,
घास काट रहा था
सन्नाटे संग एक कोलाहल
बाँट रहा था

उसने पूछा, 
" भाई, इस मकान में
तुम कब से रहते हो
इस इस मायूसी और मनहूसी,
खामोशी को कैसे सहते हो "

पूछते ही सिर्फ उसकी
गर्दन ही पीछे घूमी
उसका चेहरा रूई के
फाहे सा सफेद था
आँखों में भी नहीं था
जीवन का कोई संकेत सा
मुँह खुला, आवाज मगर
जैसे नभ से उतर रही थी
उसकी हिम्मत को 
निर्ममता से कुतर रही थी,

" तुमको किसने कहा,
यहाँ पर मैं रहता हूँ,
भाई, तुमसे सच कहता हूँ
मूझे मरे तो सालों हो गये
जाने कितने बसंत 
इस पतझड़ में सो गये हैं "

वो हैरान, परेशान, 
बिल्कुल हलकान
भाग चला फिर उल्टे पाँव
कहीं निगल ले ना उसको भी
अनायास जीवन की साँझ
घेर ना ले जीवन की राह
अनहोनी सी कोई छाँव

द्वारा : सुधीर अधीर

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