कहानीलघुकथा
#शीर्षक
"समानता "
दिवंगत पत्नी के चित्र के आगे बेबस और लाचार से खड़े हरी जी मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं,
" हे भगवान् मुझे भी छाया के साथ ही उठा लेते तो कम से कम यह दिन तो नहीं देखने पड़ते "।
पहले तो उनका ज्यादातर समय कौलनी के पार्क में निकल जाता था पर बुरा हो इस कोरोना काल का वे घर में ही बंद हो कर रह गये हैं।
लोग कहतें हैं जिनकी बेटियां होती हैं उनका बुढ़ापा सुख चैन से कटता है तो क्या यही है सुख चैन ?
हरीजी और उनकी पत्नी छायाजी ने बहुत प्यार , संभाल और परवाह से यह घर बसाया था।
उन्हीं का घर फिर भी भरे-पुरे घर में अजनबी जैसी हस्ती हो कर रह गयी है उनकी । पुराने दिनों की याद में वे हमेशा डूबे रहते हैं।
छाया तो कहती थी ,
" ये मेरी दो बेटियां हीरे की कण हैं जी लड़को से क्या कम हैं ? देख लेना अपन लोग चैन की वंशी बजाएगें "।
अब कहाँ जाएं वे ? छायाजी तो बीच मंझदार में उनका साथ छोड़ कर चली गई।
यों तो कान से जरा कम सुनाई देता है । लेकिन उस दिन धीमे स्वर में ही बेटी द्वारा फोन पर किसी से की गई बातें उनके कान में पिघले हुए शीशे की तरह पड़ गई थी।
बड़ी बेटी अराधना बात- चीत के क्रम में किसी से बोल रही है ,
" अब देख ना बाबा बूढ़े हो गए लेकिन इन्हें कोरोना ना हो कर विशाल को हो गया कम से कम हम इनसे तो निपट जाते " ।
आह... हरी जी की आँखें चौंधने लगी ...हैं ,
" हे ईश्वर अब तो उठा लो क्या यही सुनने के लिए बच रहे हैं वे।"
दो -दो बेटियों के रहते भी वे अनाथ की सी जिन्दगी बिता रहे ।
वे बुदबुदा उठे ,
" देख लो छाया बेटियां हर मामले में बेटों से कम नहीं है"।
सीमा वर्मा ©®