कहानीलघुकथा
लघुकथा # शीर्षक#
"खोया हुआ आदमी"
मैं कंहा जा रहा हूँ ? किस ओर ? यहां कैसे आ गया ? यह मेरे आस- पास कौन सी जगह है ?
वह बुदबुदा रहा है।
उसे इस तरह बुदबुदाते और सड़क पर नितांत अकेले देख कर डॉक्टर सुधाकर ने उसे रोका।
सुदर्शन व्यक्तित्व है । आंखें बुझी-बुझी सी , बाल बिखरे हुए कपड़े भी अस्त-व्यस्त।करीब से सुना बुदबुदाहट,
" अब पहले वाली स्थिति नहीं है। मैं उनके बीच रह कर उन जैसा ही हो गया हूँ। उस दिन रात में क्या हुआ था ? मुझे नहीं मालूम।
फिर डॉक्टर साहब को देख कर ,
सब कोई मेरी तरफ ही देख रहे हैं। जो भी मुझको देखता हँस रहा है।ऐसा क्यों है? मैं जानने की कोशिश भी नहीं कर रहा हूँ सुधाकर जी ने इधर उधर नजर घुमा कर देखा वहाँ कोई भी नहीं है।
फिर बहुत प्यार से उसके कंधे थपथपाते हुए पूछा ।
कहां जाना है तुम्हे ?
वह अंजान थोड़ी देर तक विस्फिरित आंखों से उन्हें देखता रहा फिर पूछा ,
"क्या बाबा ने तुम्हें भेजा है"? मुझे लाने को तो फिर वो क्यों नहीं आए साथ तुम्हारे ,
वे मुझे वर्षों से नहीं दिखे " ?
कहते हुए वहीं जमीन पर थका हुआ सा बैठ गया ।
सुधाकर ने कंधे पर हांथ रखा तो वह छिटक कर दूर हट गया ।
और पजामे की जेब में हाँथ डाल कुछ ढूंढता हुआ सा लगा।
फिर बेचैनी से उनकी तरफ देखते हुए बुदबुदाने लगा ,
"शायद यह जंगल है ,जंगल में तो भूख-प्यास नहीं लगती थी पर मुझे तो आज लग रही है"।
"मुझे अभी तक कोई जानवर क्यों नहीं मिला" ?
यह सुन डॉक्टर सुधाकर ने करीब जा कर देखा । उसके पजामे पर मानसिक आरोग्यशाला के निशान बने हुए हैं वे चुटकियों में सब समझ गए कि यह सुदर्शन व्यक्ति किसी तरह वहाँ से निकल तो गया है पर रास्ता नहीं मालूम होने की वजह से कंही और न भटक जाए यह सोचते हुए उसे प्यार से थपथपाते हुए हाँथ थाम पास ही लगी अपनी गाड़ी में बैठा लिया ,
"तुम्हें भूख लगी है ना आओ मेरे साथ मैं तुम्हें चाय पिलाता हूँ" ।
वह खुश हो ताली बजाने लगा।
"आप जानते हैं मुझे मगर मैं तो नहीं जानता आपको?" बचपने में मेला जाते समय जो ललक होती है ना वह ऐसे ही उत्साह में लग रहा है।
डॉक्टर सुधाकर उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते । तभी तो भारी मन से उन्होंने गाड़ी का रुख मानसिक अस्पताल की तरफ कर लिया है।
सीमावर्मा ©®