कहानीलघुकथा
*जंग लाली की*
जग्या ने पत्नी को अपनी चिंता जताई, " देख धन्नो, अपनी लाली अब जवान हो गई है। वह रंगरूप में तेरे से भी दस कदम आगे है। ऊपर से उसकी दिलेरी ने मेरी नींद ही उड़ा दी है। "
धन्नो बोली, " हाँ जी, तुम तो पानवाले रुप्या से फेरे करवादो। कितनी बार मांग चुका है हमारी बेटी का हाथ। अच्छा खाता पीता घर है। "
और लाली बन गई रुप्या की दुल्हनिया। रुप्या तो निहाल हो गया। लाली थी भी इतनी सुंदर,,,, लम्बी, गोरी, कजरारी हिरनी सी आँखें और कमर तक लटकते बाल।
रुप्या दुकान पर भी कम जाने लगा। जवानी के ख़ुमार में नशे की भी लत लग गई। दिन भर लाली के आगोश में पड़ा रहता।
पेट की आग बुझाने लाली दुकान सम्भालने लगी। घर व बाहर के काम करते लाली थक कर निढाल पड़ जाती। पान तो खूब बिकते पर लाली के ओठों की सुर्खी के कई दीवाने हो गए। लाली की शिकायतें सुन रुप्या समझाता, " क्या हुआ, तेरी तारीफ़ ही करते हैं। अपना काम चल रहा है, ये क्या कम है। "
कस्बे के सेठ ने मौका देख रुप्या से लाली का सौदा करना चाहा। कुछ नानुकूर कर रुप्या मान गया कि एक दिन के पाँच हज़ार मुफ़्त में मिल जाएंगे।
रुप्या कहीं गया है। लाली तैयार होकर रुप्या की राह देखती है कि वो आए तो वह दुकान जा सके।
दरवाज़ा खोलते ही सेठ
अंदर आ लाली को बाहों में भर चूमने लगता है व
कहता है," पूरे पाँच हज़ार वसूल करूँगा मेरी जान। "
लाली शेरनी बन हाथों व लातों से मारती बाहर का रास्ता दिखा देती है।
रुप्या गुस्से से भरा आता है। गालियाँ दे मारने लगता है, " तेरा क्या जाता, मेरे जैसा ही मर्द था। " लाली चण्डिका बन हँसिया उठा वार पर वार करते चिल्लाती है, " तेरे जैसे मर्द से मैं अकेली ही भली। "
सरला मेहता