कहानीलघुकथा
# शीर्षक#
" गंगा -जल "
गली के अन्तिम छोड़ पर बने आलीशान गुलाबी मकान के मालिक हैं चावला साहस अवकारी विभाग में किरानी के पद पर ।
अनाप-शनाप पैसों से घर भर रक्खा है ।
पैसा जिस भी माध्यम से तेजी से आता है उसी द्रुतगति से खर्च करने की भी आदत लगभग घर के हर सदस्य को है ।
धीरज इन्हीं चावला साहब के तीन पुत्रियों के बाद की चौथी संतान है ।
जो अपने सुनाम के ठीक विपरीत सर्वथा अधैर्यवान हो गया है ।
अभी मात्र सातवीं कक्षा में ही था तभी गलत सोहबत में पड़ कर पैसे को हाथ का मैल समझ अक्सर पिता के सामने ही गुनगुनाता , " पैसा आए कहाँ से- पैसा जाए कहाँ रे " ।
और चावला साहब दांत निपोर कर हंसते रहते ।
एक दिन बात है।
बातों ही बातों में दोस्तो द्वारा कुछ नया कर गुजरने के चैलेंज को स्वीकार करने के तौर पर , जो ड्रग को जरा सा चख लिया बस वही नासूर बन उसके पूरे परिवार पर फूट पड़ा है।
धीरे- धीरे वह इसका आदी होने लगा है।
लक्ष्मी तो पूरे घर में बिखरी पड़ी थीं किसी से मांगने की भी जरूरत नहीं थी ।
आखिर तीन बेटियों पर एक बेटा था लेकिन वो कहते हैं ना गलत काम का गलत नतीजा ।
यंही से चावला परिवार की दुर्गति की शुरुआत हो गयी थी ।
फिर एक समय वह आया जब "ओरल ड्रग " भी धीरज को कम पड़ने लगे तब अधिक संतुष्टि के लिए नहीं उसने नशे के इन्जेक्शन लेने शुरू कर दिए। तब कंही जा कर मां की नींद टूटी ।
लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था वह अब मां के पैसों पर ही हांथ साफ करने लगा था । नहीं मिलने पर आलमारी में सेंध लगाता ।
हंसमुख स्वभाव का धीरज चिड़चिड़े से बढ़कर उग्र होने लगा है ।
पैसों के वक्त वेवक्त माँ बहन को प्रताड़ित करने लगा।
बात तब हद से ज्यादा बिगड़ने लगी जब कड़ाई करने पर वह हाँथ भी उठाने लगा।
आखिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था।
चावला साहब को अपने आंख के तारे धीरज के हांथ पैर बांध कर नशा मुक्ति केन्द्र भेजना पड़ा ।
और तभी से उन्होंने भी गंगा जल हांथ में ले गलत पैसे को व्यवहार में न लाने की कसम खाई है ।
सीमा वर्मा ©®