कहानीसामाजिक
नियमित स्तंभ दिए गये विषय "कागज के फूल" के अन्तर्गत
प्रतियोगिता से इतर...
#शीर्षक
"कड़ी धूप में घना साया"
शिखा अक्सर अपनी बालकनी से उन अर्धसफेद बालों वाले बुजुर्ग को उनके कौटेजनुमा घर से निकल सामने पार्क में वाक के बाद बेंच पर बैठे देखा करती है।
शाम के लगभग चार बजे।
यही समय रहता है जब वह भी फुर्सत में होती है।
वह भी निकल पड़ती है।
करीब रोज ही हाए -हैलो होती है। उसकी उनसे लेकिन आज तो!
" उन्होंने दोनों हाँथ जोड़े ,
नमस्ते आप उस सामने वाली बहुमंजिला इमारत में रहती हैं ना?"
उन भद्र पुरुष ने जैसे तय कर रखा था जब भी मौका मिलेगा वे यही सवाल करेंगे...
" जी, जी हाँ..." मुस्कुराते हुए शिखा ने जवाब दिया।वे बेहद खुशगवार स्वभाव के लगे उनका अगला वाक्य...
"वो आपके पिताजी हैं ना?
उनसे रोज ही दुआ-सलाम हो जाती है"।
हतप्रभ हो गई शिखा
" नहीं, नहीं वे मेरे पिता नहीं पति हैं अंकल"।
कह हाँथ जोड़ लिए।
हैरान भंडारी ,
"नो-नो सिर्फ भंडारी ! तुम मुझे सिर्फ मेरे नाम से भी बुला सकती हो फिर आश्चर्य में डूब,
"वो इतने अधिक उम्र के और तुम?
क्या शादी तुम्हारी मर्जी से हुई है या माता-पिता की?"।
फिक्क... उदास सी हँसी हँस कर शिखा बोली दरअसल
" मैंनें अपने पैरेंट्स को नहीं देखा है। वे एक कार दुर्घटना में गुजर गये थे और उनके बाद जहाँ मैं पली बढ़ी वह मामा का घर था।
वहाँ अपनी पसंद बताना गुनाह समझा जाता था"। "
अगर किसी को कोई पसंद आ भी गया तो वह सैकड़ो सवालो के घेरे में घिर जाता" कह मुस्कुरा दी।
"तुम्हारी मुस्कान बहुत प्यारी है क्या नाम बताया तुमने अपना "?
" जी शिखा " धीरे से कह वह उसी बेंच पर बैठ गई जहाँ भंडारी बैठे थे।
यही एक पल तो होता है जब,
वह खुद को आजाद महसूस करती है।
वीरेन के कड़े स्वभाव और बुजुर्गों वाले व्यवहार से उबी शिखा की पलको पर लम्बी थकान की लकीरे सिमट आई।
लेकिन चिड़ियों की चहचहाहट उसकी थकान को अपने सुरों के साथ उड़ा कर ले जाती है।
पहले शिखा और वीरेन दोनों ही आते थे ,
साथ में पर वीरेन हर वक्त तनाव में रहते हुए दो चार दिन में ही ऊब गए।
" मैं बहुत थक जाता हूँ। यह क्या रूल बना रखा है अपने साथ डौगी या फिर
तुम अकेले ही चली जाया करो"।
फिर यह सोच कर कि
"अगर दूसरा कोई विकल्प ना हो तो समझौता कर लेने में ही अक्लमंदी है"।
शिखा ने कुछ ना कह सिर्फ हामी भर दी थी।
उफ् ...ठंडी हवा से शिखा के शरीर में झुरझुरी सी पैदा हो गई।
उसने देखा भंडारी पार्क में खिले फूलों से बाते कर रहे हैं।
"कोई वीरेन को मेरा पति ना समझ पिता समझ लेता है तो मैं इतना परेशान क्यों हो जाती हूँ ?
अब वो उम्र में मुझसे इतने बड़े हैं ही कि पति नहीं पिता दिखते हैं"।
यह सोच उसे हँसी आ गई।
वीरेन बोलते कम और काम ज्यादा करते हैं। उनका दफ्तर और उनका काम बस यही दो शौक है उन्हें।
आधी खुली आधी बंद आंखो से उसने सिर पीछे बेंच पर टिका कर मन ही मन बुदबुदा उठी ,
एक तीसरा शौक भी तो है। बच्चों और उसे अपने कड़े अनुशासन वाले बर्ताव से साधते रहना, गोया इंसान ना हो पालतू हैं।
जब कि शिखा का मानना है।
"किसी पर भी सख्ती उस हद तक करें जितनी वह बर्दाश्त कर सके।
हद से ज्यादा सख्ती उसके अहम् को बड़ा कर उसे बागी बना सकता है"।
खैर...
उसने अक्सर भंडारी को पार्क में पेड़ों को, टहनियों को छूते उनसे बाते करते , फूलों को बाग में उनकी छटा बिखेरने के लिए शुक्रिया अदा करते देखा है।
कितना सरल होता है ना यूँ हल्के-फुल्के ढ़ग से जीवन बिताना जैसे भंडारी जीते हैं।
सोचती है शिखा "मैंने अपने पिता को नहीं देखा है,
काश ... वह जीवित होते तो शायद भंडारी जैसे ही होते, वीरेन जैसे तो कतई नहीं "।
सोचती हुयी ठंडी सांस ले कर उठ गई।अभी घर जा कर सारे काम निपटाने हैं। कल पूछूँगी भंडारी से आंटी के विषय में।
क्रमशः
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सीमा वर्मा